एक निगाह इधर भी ....
" उठती - गिरती हैं निगाहें ,
कुछ सवालें लिए
कुछ फ़साने सुनाती ..
कभी इश्क के बयाँ में ,
कभी कसक के ख्वाब में ...
कभी होती हैं कुछ बेपरवाहियाँ उनमे ,
कभी होती हैं ज़ज्बातें उनमे ,
उठती - गिरती हैं निगाहें ..... "
निगाहें भी कितनी अजीबोगरीब होती हैं.. कोई शायर उनपर शायरी करता है , तो कोई गीतकार उनपर गीत लिखता है . न जाने कितनी गज़लें लिखी गयी हैं इन् निगाहों पर ...
फिल्म हो या लाइव कॉन्सर्ट हर महफ़िल को सजाने वाली निगाहें ही तो हैं... गीत हो, ग़ज़ल हो या कोई शायरी ; बिन निगाहों के इन पर कोई इनायत भी तो नही करता ...और करे भी तो कैसे ....
" जो निगाहें उनकी न टकराती इस क़द्र ,
मोहब्बत का ये जाम छलकता कैसे ...
ज़माने में बाते न होती ...
न इश्क का इज़हार होता ,
न मोहब्बत जवान होती,
न झुकती अदब से निगाहें औ' न
इश्क यूँ बदनाम न होता .... "
ये उन निगाहों की बात है जिन्हें देख कर लोगों की आँखों में चमक आती है... दिल में प्यार का जाम छलकता है और शामे रंगीन हो जाती हैं...
लेकिन मै यहाँ इन् निगाहों की बात नही करने वाली हूँ . मुझे इनसे क्या सरोकार ?
मै एक साधारण सी लड़की हूँ साहब , दुनिया के भीड़ में एक आवाज़ मात्र . देखती हूँ , सुनती हूँ , महसूस भी करती हूँ इस शहर के शोर - शराबे को , बस कुछ कह नही पाती ..अगर कहना चाहू भी तो सुनेगा कौन ? हूँ तो साधारण उपर से लड़की ...
आप भी सोच रहे होंगे ,, कौन हूँ मै ? और ये सब आप लोगों को क्यों सुना रही हूँ ? आप का मुझसे या मेरी कहानी से क्या लेना - देना ??
लेकिन अरज करती हूँ साहब आगे बढ़ने से पहले एक बार मेरी दास्ताँ सुनते जाओ ..तुम्हारी आँखों में भी कहीं शायद कोई आँसू की बूँद बची हो जो बरबस ही गेसूयों से ढलक के पलकों को भिगो जाये शायद..
शायद तुम्हारे दिल के तारों को कहीं मेरे दिल का साज़ एक पल के लिए ही सही ,, छू जाये...सुन लो एक बार ... अफसाने समझ कर ही ... पसंद न आये तो भूल जाना .... औ' अगर पसन्द आ जाये तो ,, तो दो शब्द कह देना , होठो से न कह सको तो निगाहों से ही सही ...
" मै एक लड़की हूँ साहब, रहती हूँ इस महानगरी मुंबई की गलियों में ..कहने को तो जिंदा हूँ यहाँ , जीती हूँ यहीं .. पर साहब हर लम्हा हर पल बस जीने की जदोजहद में गुज़र जाती है जिंदगानी ... लोग कहते हैं आँखे बहुत खुबसूरत है मेरी लेकिन निगाहें कातर हो गयी हैं...
सिर्फ मेरी नही , मुझ जैसी न जाने कितनी आँखे हैं जो उम्मीद पर जीती हैं साहब.. बस उम्मीद पर ..
सुना था कहीं यूं ही आते - जाते , न जाने कब ? कहाँ ? कैसे ? ये कुछ शब्द बरबस ही मेरी कानो में पड़ गये थे " हौसला रखो, उम्मीद रखो , आज नही तो कल ऊपरवाला तुम्हारी भी सुनेगा ..."
उस दिन से आज तक बस उस पल का इंतज़ार है , जब ऊपरवाला मेरी भी ... नही - नही मेरे जैसों की भी सुनेगा ... उसी दिन के लिए तो सारे सपने आँखों में समेट रखे हैं...आँसू गर आ भी जाते हैं कभी भूले -भटके आँखों में तो उन्हें गिरने नही देती साहब... डरती हूँ कहीं सपने उनके साथ बह न जाएँ... इनके अलावा मेरा और है ही क्या ... ?
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अर्पना शर्मा : की कलम से
" उठती - गिरती हैं निगाहें ,
कुछ सवालें लिए
कुछ फ़साने सुनाती ..
कभी इश्क के बयाँ में ,
कभी कसक के ख्वाब में ...
कभी होती हैं कुछ बेपरवाहियाँ उनमे ,
कभी होती हैं ज़ज्बातें उनमे ,
उठती - गिरती हैं निगाहें ..... "
निगाहें भी कितनी अजीबोगरीब होती हैं.. कोई शायर उनपर शायरी करता है , तो कोई गीतकार उनपर गीत लिखता है . न जाने कितनी गज़लें लिखी गयी हैं इन् निगाहों पर ...
फिल्म हो या लाइव कॉन्सर्ट हर महफ़िल को सजाने वाली निगाहें ही तो हैं... गीत हो, ग़ज़ल हो या कोई शायरी ; बिन निगाहों के इन पर कोई इनायत भी तो नही करता ...और करे भी तो कैसे ....
" जो निगाहें उनकी न टकराती इस क़द्र ,
मोहब्बत का ये जाम छलकता कैसे ...
ज़माने में बाते न होती ...
न इश्क का इज़हार होता ,
न मोहब्बत जवान होती,
न झुकती अदब से निगाहें औ' न
इश्क यूँ बदनाम न होता .... "
ये उन निगाहों की बात है जिन्हें देख कर लोगों की आँखों में चमक आती है... दिल में प्यार का जाम छलकता है और शामे रंगीन हो जाती हैं...
लेकिन मै यहाँ इन् निगाहों की बात नही करने वाली हूँ . मुझे इनसे क्या सरोकार ?
मै एक साधारण सी लड़की हूँ साहब , दुनिया के भीड़ में एक आवाज़ मात्र . देखती हूँ , सुनती हूँ , महसूस भी करती हूँ इस शहर के शोर - शराबे को , बस कुछ कह नही पाती ..अगर कहना चाहू भी तो सुनेगा कौन ? हूँ तो साधारण उपर से लड़की ...
आप भी सोच रहे होंगे ,, कौन हूँ मै ? और ये सब आप लोगों को क्यों सुना रही हूँ ? आप का मुझसे या मेरी कहानी से क्या लेना - देना ??
लेकिन अरज करती हूँ साहब आगे बढ़ने से पहले एक बार मेरी दास्ताँ सुनते जाओ ..तुम्हारी आँखों में भी कहीं शायद कोई आँसू की बूँद बची हो जो बरबस ही गेसूयों से ढलक के पलकों को भिगो जाये शायद..
शायद तुम्हारे दिल के तारों को कहीं मेरे दिल का साज़ एक पल के लिए ही सही ,, छू जाये...सुन लो एक बार ... अफसाने समझ कर ही ... पसंद न आये तो भूल जाना .... औ' अगर पसन्द आ जाये तो ,, तो दो शब्द कह देना , होठो से न कह सको तो निगाहों से ही सही ...
" मै एक लड़की हूँ साहब, रहती हूँ इस महानगरी मुंबई की गलियों में ..कहने को तो जिंदा हूँ यहाँ , जीती हूँ यहीं .. पर साहब हर लम्हा हर पल बस जीने की जदोजहद में गुज़र जाती है जिंदगानी ... लोग कहते हैं आँखे बहुत खुबसूरत है मेरी लेकिन निगाहें कातर हो गयी हैं...
सिर्फ मेरी नही , मुझ जैसी न जाने कितनी आँखे हैं जो उम्मीद पर जीती हैं साहब.. बस उम्मीद पर ..
सुना था कहीं यूं ही आते - जाते , न जाने कब ? कहाँ ? कैसे ? ये कुछ शब्द बरबस ही मेरी कानो में पड़ गये थे " हौसला रखो, उम्मीद रखो , आज नही तो कल ऊपरवाला तुम्हारी भी सुनेगा ..."
उस दिन से आज तक बस उस पल का इंतज़ार है , जब ऊपरवाला मेरी भी ... नही - नही मेरे जैसों की भी सुनेगा ... उसी दिन के लिए तो सारे सपने आँखों में समेट रखे हैं...आँसू गर आ भी जाते हैं कभी भूले -भटके आँखों में तो उन्हें गिरने नही देती साहब... डरती हूँ कहीं सपने उनके साथ बह न जाएँ... इनके अलावा मेरा और है ही क्या ... ?
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अर्पना शर्मा : की कलम से