Wednesday, 30 November 2016

सफ़र

वक़्त जितनी तेज़ी से बदलता है उतनी ही तेज़ी से उसके साथ चलने वाले लोग भी भागे चले जाते हैं.. पता ही नही चलता कि कल जिनसे हाथ मिलाया था उनसे ही गले मिलेंगे कभी यूँ इस कदर. बस फर्क इतना होगा की कल हमारे साथ की, हमारे सफ़र की शुरुआत हुयी थी और आज हमारे सफ़र में उनका रास्ता ही ख़त्म होने को आ गया. सपना- सा लगता है जब कभी रुक कर, कुछ पल के लिए थम कर उन बीते लम्हों को देखती हूँ. हाँ, जैसे कल की ही तो बात है २० नवम्बर,२०१५  को एक इंटरव्यू के सिलसिले में आर.सी.पी (रिलायंस कॉर्पोरेट आईटी पार्क) में कदम रखा था मैंने और वहां उस अंजान सी जगह में भी मुझे कोई अपना मिल गया, एक ऐसा अपना जिसने पहले दिन ही मुझे मेरी मंजिल की तरफ बढ़ने का रास्ता दिखाया... “प्रीती परब“ और तब से ही अपनी दोस्ती हो गयी. सफ़र की शुरुआत हुई और पहला दरवाज़ा जो खुला तो कुछ कदम और हमारे साथ मिल गये ... “ शलाका पेद्नेकर ” , “नीता राज” और “स्नेहा चौहान”. इन हाथों ने जिस प्यार से हमारे हाथ को थामा उस सफ़र में उसका शायद ही मैं कोई डेफिनिशन दे पाऊं. एक परिवार मिला मुझे. गये १ साल में हमारे रिश्ते और भी गहरे होते चले गये, हर जरुरत में, ख़ुशी में, फेस्टिवल में या फिर जब मन उदास हो जाये ये चेहरे साथ नज़र आये. हाँ जैसे की अक्सर होता है, कोई दिल के ज्यादा करीब होता है तो कुछ लोगो से रिश्ते एक हद तक रहते हैं.. यहाँ भी कुछ ऐसा ही है... बीतते वक़्त के साथ और भी कई लोग इस सफ़र में साथ जुड़ गये और कुछ लोगो की राहें अलग भी हो गई. किस-किस का नाम लूं “हर्षदा”, “योगेश”, “सचिन भोसले“, “ मिलाप ” , “साईं” , “भूषण” , “किशोर”, “कमलाकांत”, “मुकुंद”, “सजल” ये नाम भी हमारे सफर के सागिर्द हैं और भी कई नाम हैं, सबको लिखना संभव नही है..  

आज ३० नवम्बर,२०१६ को भी जब मैं बैठकर ये सबकुछ यहाँ लिख रही हूँ तो हममे से ही कोई उन बीते लम्हों को बड़े ही नाज़ुक हाथों से उलट-पलट रहा होगा या फिर होगी. कहीं न कहीं उन बीते लम्हों की एक एक याद को सहेजने में व्यस्त. उसके लिए ये साथ भरा सफ़र, जिनमे प्यार भी है, अपनापन भी और कुछ गिले –सिकवे भी , ख़त्म होने को आ गया. १-२ दिन बाद हमारा ये काफिला तो आगे बढेगा लेकिन वो शक्श हमारे जत्थे का हिस्सा नही होगा. सब कुछ वहां वैसे ही नज़र आएगा बस एक खालीपन सा उसमे शामिल हो जायेगा ....

            “ वही पुराने किस्से होंगे, होंगी वही कहानियां
             बस सिमटा होगा कोई शक्श मन ही मन
             और यादों में भी होंगी कई राबनियाँ ...”

“ स्नेहा चौहान “ हमारे सफ़र से तो अलग होने जा रही हैं लेकिन जब भी इस सफ़र की बात होगी वो सबकी बातों में होगी. कल को सब उनको टाटा-बाय-बाय तो बोल देंगे लेकिन सिर्फ ऑफिशियली , दोस्ती कभी ख़त्म नही होती और न ही दोस्तों से जुडी बातें कोई भूल पाता है...
“ स्नेहा “ ये हो सकता है की कल जब तुम्हे बाय बोलने को लब खुले तो और कुछ बोल न पाएंगे हम. क्योकि जब एक बेहतरीन सफ़र से कोई मुसाफिर अलग होकर अपनी राह पकड़ता है तो वो राह और भी ज्यादा सुहाना होता है... साथ चलने वालों के लब तो खामोश होते हैं लेकिन नज़रें बहुत कुछ कह जाती हैं जिन्हें न तो बोलना आसान होता है और नहीं सुन पाना. कल को अगर तुम्हे बिदाई देते हुए हम खामोश हो जाएँ तो समझ लेना की हमारे दिल की दुआएं तुम्हारे साथ हैं... अपना ये सफ़र ख़त्म हुआ है.. राहें अभी भी बाकी हैं.... जब भी दिल से आवाज़ दोगी भले ही हमारी आवाज़ तुम तक न पहुँच पाए, लेकिन साथ हमेशा रहेगा तुम्हारे नये सफ़र में भी...
सारे जज्बातों को बताना पॉसिबल नही है इसलिए बस इतना ही कहूँगी :---

 “ कहूँ तुम्हें तो क्या कहूँ ..
    कुछ समझ में आता ही नहीं ..
   जब भी मिलती हैं तुमसे नज़रे
   दिल खुद से पूछता है..
    तुमसे कोई रिश्ता तो नही ??
    ना जाने क्यूँ ! आ जाती है ..
    होठों पे मुस्कराहट...
    जब भी देखती हूँ तुम्हे ...
    वैसे तो कोई खास रिश्ता नही ..
    फिर भी जाने क्यूँ चाहते है तुम्हें..
     ज्यादा मैं क्या बताऊँ  ??
     वैसे तो बहुत कुछ है बताने को..
       लेकिन शब्द ही मिलते नहीं..
       सुना है “मंजिले “ जुदा होती हैं..
       राहें तो वहीँ पुराणी रह जाती हैं...
        चाहूँगी हमेशा कि तुम यूँ ही ,
            मुस्कुराते रहना ..
        हँसते हुए तुम्हे देखने की चाहत है ...
        ये “चाहत” कुछ ज्यादा तो नहीं !!! ” 

Wish you a very happy journey ahead SNEHA …. May God bless you ever…

Tuesday, 29 November 2016

वादा करो ...

Just a feeling of love in weather of Mumbai.... a promise of dedication ....

खुशबूओं की तरह मेरी हर साँस में
प्यार अपना बसाने का वादा करो,
रंग जितनी तुम्हारी मुहब्बत के हैं
मेरे दिल में सजाने का वादा करो .

है तुम्हारी वफाओं पर मुझको यकीं
फिर भी दिल चाहता है ऐ दिलनशी,
यूँ ही मेरी तसल्ली की खातिर जरा,
मुझको अपना बनाने का वादा करो.

जब मुहब्बत का इकरार करते हो तुम,
धडकनों में नया रंग भरते हो तुम,
वादे कर चुके हो मगर आज फिर,
मुझको अपना बनाने का वादा करो.

सिर्फ़ लफ़्ज़ों से इकरार होता नहीं,
इक ज़ानिब से ही प्यार होता है.
मैं तुम्हे याद रखने की खाऊं कसम,
तुम मुझको ना भूलने का वादा करो.

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Monday, 28 November 2016

अजनबी... जाना –पहचाना सा - IV

जैसे-जैसे वक़्त बीतता जाता है रिश्ते गहरे होते जाते हैं, कुछ रिश्ते टूटते भी हैं और कई नये रिश्ते जुड़ते भी हैं..

    “ वक़्त का पैमाना भी अंदाज़-ए-जुदा होता है यहाँ
     कि अपना हर लम्हा अपनों के नाम होता है..
     होती है सुबह दोस्तों-यारों की संगत में,
     कि हर कहानी के पीछे अपना ही एक ज़ाम होता है..
     बन-बिगड़ जाते हैं रिश्ते यहाँ पल भर में,
     लेकिन दिलों में ज़ज्बातों का अम्बार होता है..
     बीत जाते हैं साल-दर-साल यूँ ही,
     लेकिन जो न बीत पाए, वो यादें होती हैं..
     घूमता फिरता है हर बंजारा यहाँ
      अपनी ही हॉस्टल की गलियों में,
    करता है वार्डन की मखनबाजी
     रात-बिरात की अन्धेरियों में,
     गूंज उठती हैं आवाजें कई यहाँ
     दिन-दोपहर रात के अंधेरों में,
     कि काफिले निकलते हैं दोस्तों की टोलियों में..
     बीत जाता है वक़्त यूँ ही हँसते- रोते
     पर जो न बीत पाती है वो अपनी याद होती है..”

चार साल में एक वक्त ऐसा भी आता है, जब सबके रास्ते अलग होने लगते हैं. सबकी किस्मत अलग अलग राहों पर ले जाती है उन अपनों को. लेकिन सिर्फ रस्ते अलग होते हैं, मन तो वहीँ कॉलेज के लाइब्रेरी में, क्लास रूम में, हॉस्टल के रूम में, कैंपस में, लव ट्री के पास, मिरिंडा के किनारे, सिबू दा के ढाबे में, दामोदरपुर के चौराहे पर, राजोग्राम, बाँकुरा और न जाने कहाँ-कहाँ रह जाता है.. अपनी यादों के साथ.
शायद इसलिए आज भी जब कभी लता मंगेशकर की ये लाइन्स कानो में जाते हैं तो मन अपनी ही यादों की दुनिया में खो जाता है ... और होठों पर ये लाइन रह जाती है...

       “हम भूल गये रे हर बात मगर तेरा प्यार नही भूले,
       क्या क्या हुआ दिल के साथ -२ मगर तेरा प्यार नही भूले
        हम भूल गये रे हर बात मगर तेरा प्यार नही भूले “


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अजनबी... जाना –पहचाना सा - III

Hey hello friends, Once again I am here with the same “Love Tree” of BUIE and memories.
चलिए फिर से एक बार चलते हैं बी.ऊ.आई.ई (BUIE) के यादों की वादियों में, एक और कप कड़क चाय की प्याली के साथ. आप भी सोचते होंगे कि इतने दिनों से जिस जगह से, जिस कैंपस से दूर हूँ, उसकी बातें क्यों याद करती हूँ , वही बीती बातों को क्यों दुहराती हूँ... इस सवाल का जवाब तो आप सबको वही दे सकता है जिसने खुद उन गलियों में अपने जीवन के लम्हे गुजारे हों.. वो कहते हैं ना :-
        “ नगमे है, शिकवे है, किस्से है, बाते है..
          बाते भूल जाती है, यादे याद आती है.. “
और ये बिलकुल सच है, कितनी भी दूरी क्यों ना हो... वहाँ की यादें कभी साथ नही छोड़ती.
तो चलो चलते हैं उन हसीं वादियों में ..
दूर दूर तक रेगिस्तान कि तरह फैली लाल बलुई मिट्टी (red sandsoil) और उस रेगिस्तान में हमारा हॉस्टल. कोई नज़र नही आएगा वहाँ सिवाय वहाँ के पंछियों के. चार-पाँच हॉस्टल की  बिल्डिंग और उनका साथ देता हुआ अपना “लव ट्री”, उसी के साथ जुड़ा हुआ एक छोटा सा तालाब “मिरिंडा पोखर“. सबका फेवरेट. पानी हो या न हो, मिरिंडा तो मिरिंडा है. उसका अपना ही नशा है, और वो नशा क्या है ये तो उनसे पूछो जो “ चंडीदास ” और “ आइंस्टीन ” में रहते हैं.
यहाँ रहने वाले लोग अलग अलग ठिकानो से आके यहाँ एक हो जाते हैं. अपने अपने घर-परिवार से दूर एक नया घर बन जाता है, एक नया परिवार मिलता है यहाँ. जो चार सालो के साथ में ही ज़िन्दगी के कई सलीके सिखा जाते हैं. ऐसा किसी एक के साथ नही होता, यहाँ आने वाले हर स्टूडेंट की कहानी ऐसी ही होती है..
जब आते हैं तो नज़रें दौड़ती-भटकती किसी को तलाशती हुई होती हैं, कोई ऐसा जो अपना हमसफ़र बनेगा आनेवाले चार सालों में जो साथ चलेगा. सबकी नज़रे एक छोर से दुसरे छोर तक सिर्फ कुछ नामों को लेकर भटकती है अपने अपने “रूम मेट” की तलाश में. उस खोज कि शुरुआत से लेकर उसके पुरे होने के बीच में कई नये रिश्ते बनते है.. “पडोसी” , ”फ्रॉम सेम प्लेस फ्रेंड्स ”, “ सेम कॉलेज औ’ स्कूल ब्रांच फ्रेंड्स”, “कोचिंग फ्रेंड्स” और न जाने कितने रिश्ते. ये रिश्ते धीरे –धीरे अपने ही रंग में रंगते चले जाते हैं और तब शुरू होता है यादों का एक कारवां .. जो तब नज़र नही आता लेकिन वहाँ से निकलने के बाद, एक दूसरे से दूर होने के बाद यादों के हर पल को अलग ही रंग देते हैं. कभी आँखों में आँसू तो कभी होठों पर मुस्कान दे जाते हैं. हॉस्टल का कैंपस और उसके बीचो-बीच अपना “मिरिंडा पोखर “ उसके ही किनारे पर गर्ल्स हॉस्टल के ठीक सामने हरा-भरा “लव ट्री”. कई यादों का बसेरा होता है यहाँ, कुछ खट्टी तो कुछ मिट्ठी और कुछ ऐसी भी जिनका स्वाद पहचानना थोडा कठिन होता है...
कई रिश्ते होते हैं यहाँ ... भाई-भाई का रिश्ता, बहन-बहन का रिश्ता, भाई-बहन, दोस्ती-यारी और कई रिश्ते तो भाभी-देवर या फिर जीजा-साली के भी बन जाते हैं ... हर रिश्ता बस हँसी-मजाक से, एक दूसरे की परवाह से और अनदेखा सा प्यार से बंधा होता है. दूर-दूर से आये अजनबी “एक रिश्ते में” बंध जाते हैं यहाँ आकर. चार साल के हर दिन की अपनी एक अलग कहानी होती है यहाँ. अगर एक बी.ऊ.आई.इ. से पास आउट बंदा या बंदी ये बोले की उसके लाइफ में जो कुछ भी हो रहा है या हुआ वो एक लम्बी कहानी है... तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नही है.. कहानियां तो हर कॉलेज में होती हैं, लेकिन यहाँ की बात ही अलग है.