Wednesday, 11 July 2018

रूह देखी है कभी


गुलजार की लिखी एक नज्म कितना कुछ कह जाती हैं …

रूह देखी है कभी रूह को महसूस किया है ?
जागते जीते हुए दुधिया कोहरे से लिपट कर
साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?

या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हूँ ट लियाँ
सुबकियां लेती हवाओं के वह बेन सुने हैं ?

चोदहवीं रात के बर्फाब से इस चाँद को जब
ढेर से साए पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लग कर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?

जिस्म सौ बार जले फ़िर वही मिटटी का ढेला
रूह एक बार जेलेगी तो वह कुंदन होगी
रूह देखी है ,कभी रूह को महसूस किया है ?


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