अक्सर लोग कहते हैं मुझसे कि मैं कुछ सोचती क्यों नही ? लेकिन आज तक किसी ने बताया नही , कि मुझे सोचना किस बारे में चाहिए ? आखिर ऐसी कोन सी बात है जिसके बारे में सोचने की वो मुझसे उम्मीद करते हैं ! मैंने भी कुछ दिन पुराने अख़बार के पन्नो को उल्ट-पलटकर देखा और कुछ सोचने –समझने की कोशिश करने लगी किन्तु जो पढ़ा उन पन्नो में, वो हमारे समाज का आइना था शायद . शायद इसलिए कि उसमे मिर्च मसाला या फिर रंगाई –पुताई बहुत थी और जनाब आइने में तो इसकी कोई गुइंजायिस होती नही . तो हमने भी इससे आईने का वो पीछे वाला हिस्सा समझ लिया , जिस ओर गाढ़ी परत लगी होती जिससे कि दूसरा हिस्सा सच बता दे.
इतना कुछ पढने , सोचने-
समझने के बाद जब मैं शांत चित से बैठी तो जो समझ में आया वह केवल इतना कि समाज में
जो कुछ भी है ... उसका उत्तरदायी कोई और नही , समाज के लोग ही हैं.. जो भी गलती,
भूल या गुनाह जो भी है सब में कहीं न कहीं हम सब की भागीदारी है. हाँ, सब ने अपना
योगदान अलग-अलग तरीके से दिया है, लेकिन कोई भी ऐसा नही है जो कह दे कि वह इसमें
शामिल नही हुआ है. बुरा मत मानिये, नाराज़ होने से पहले मेरे नज़रिए को एक बार समझ
लीजिये. माना कि हमने –आपने कभी किसी कि पाकेटमारी नही की , किसी को कोई नुकसान भी
नही पहुँचाया, मर्डर नही किया, चीटिंग –फ्रॉड कुछ भी नही किया .. लेकिन क्या सच
में हमने चीटिंग नही किया ?
अब जरा सच सच बोलिए अपने
मन में , जब कुछ दिनों पहले हमारे सैनिक मारे जा रहे थे, वो हम जैसे लोगो कि सुरक्षा
के लिए तो हमने सोशल मीडिया – फेसबुक, whatsapp , ट्विटर, instagram आदि पर जमकर
इन गति-विधियों कि निंदा और उनपर अफ़सोस जताने के अलावा क्या असल ज़िन्दगी में कुछ
किया ? एक पत्ता भी इधर से उधर किया ? क्या किसी शहीद के घर-परिवार के लिए कुछ
किया ?
अगर सच में अपने हृदय पर
हाथ रखकर सोचे तो उत्तर हमे मिल जायेगा ... और सायद चहरे पर ग्लानी भाव भी उभर
आये.छोड़िये इस वाक्ये को .
अब आते हैं दुसरे बड़े
मुद्दे पर .... मोदी ने क्या किया हमारे लिए ? हमारे देश कि सुरक्षा
के लिए ? देश के विकास के लिए ?
चलो हम मान लेते हैं मोदी
ने कुछ नही किया .. हमारा वोट बेकार गया. लेकिन क्या हमने –आपने कुछ करने कि कोशिश
की ?
कभी समाज के लिए कुछ सोचा
? किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होने पर मोमबती जलने के अलावा क्या किया? कोई हरकत की
? फिर से, हम में से कई लोगो का उत्तर वही होगा जो पहले था ... कुछ लोगो के पास
बहाने भी होंगे अपनी अक्षमता का, अपनी परिस्थितियों का , अपनी मज़बूरी का .. और
जाने क्या –क्या.
लेकिन बहानो से प्रगति
नही होती... सोशल मीडिया पर भाषण देने से फर्क नही पड़ता ... ठीक वैसे ही जैसे ...
अगर किसी पेड़ में कीड़े लग जाएँ तो पत्तों को धोने से फर्क नही पड़ता, इलाज जड़ में
करना पड़ता है.. तो हमे भी बे-शक ज़मीनी कार्यवाई करनी होगी. डिजिटल वर्ल्ड से निकल कर
.. अपनी मिटटी में आना होगा, इसकी गन्दगी को साफ़ करना होगा, लोगो से जुड़ कर काम करना
होगा ... ज्यादा वक़्त न हो हमारे पास तो शुरुआत अपने मोहल्ले से कर देते हैं..
मोहल्ले सुधर जायेंगे तो समाज भी सुधर जायेगा .. और फिर देश भी.
फिर मोदी, सोनिया, राहुल,
केजरीवाल किसी कि भी जरुरत नही होगी हमे हमारी सुरक्षा के लिए. कोई बेटी बे-आबरू न
होगी. और अगर ये नही कर सकते तो ...छोड़िये
लोगो पर तोहमत मढ़ना.
मैं तो इतना ही सोच-समझ पायी...
बाकि तो फिर जब मस्तिस्क ने मन को बेचैन कर दिया अपने सवालों से तो .. अपनी ही
डायरी के पन्नो को उलटने-पलटने लगी और ये एक कविता नज़रों के सामने पड़ गयी... आप भी
एक बार पढ़िए और इसकी सत्यता का अनुमान लगायें...
बाकि तो सब .... भगवन
भरोसे ही हैं ...
" रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"