पर ऐसा नही . शादी की पांचवी सालगिरह थी, वह दिन सारे अर्थ खो चूकने
पर भी दिन तो बना ही हुआ था. यों इस दिन न चाहने पर भी वह अपने को बहुत दुर्बल
महसूस करती थी. उसकी यातना कई गुना बढ़ जाती थी. पर इस बार उसने वैसा कुछ भी अनुभव
नही किया और बड़े आग्रह से बिपिन से कहा था कि वह उससे संध्या के पांच बजे ला-बोहीम
में मिले.
ला-बोहीम का अँधेरा कोना. आसपास की मेजें खाली थीं और अपनी मेज़ पर
लटकती बत्ती को उसने बुझा दिया था. अँधेरा होने के साथ ही मंजरी के मन में एक क्षण
को यह बात आई थी कि आज के इस अँधेरे से ही वे चाहें तो अपनी ज़िन्दगी में कितनी
रोशनी ला सकते हैं. उस समय भीतर-ही-भीतर कुछ कसका भी था, पर दूसरे ही क्षण उसने
अपने को सहज बना लिया, यह सोचकर कि यह निरी भावुकता है और भावुकता को लेकर आदमी
केवल कष्ट प् सकता है, जी नही सकता. मंजरी जीना चाहती थी अपने लिए और बच्चो के
लिए.
और तीन घंटों के बाद जब वहां से निकली तो उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा
था कि कैसे वह इतने सहज और तटस्थ ढंग से सारी बात कर सकी, मानों ये सारे निर्णय
उसने अपने लिए नही, किसी और के लिए किये हों. वह खुद जानती है कि औरतें अपने को
कभी पूरी तरह तटस्थ नही कर सकती, खासकर ऐसे सांघातिक क्षणों में तो वे बात भी नही
कर सकतीं, केवल रो सकती है, बार-बार रो सकती है.
उससे भी आश्चर्य उसे तब हुआ था, जब अपने निर्णय को व्यावहारिक रूप
देने के लिए वह अपना सारा सामान बटोरकर , दो महीने की छुट्टी ले दिल्ली से विदा
हुयी थी. बिपिन ने बच्चे को बहुत प्यार किया था और एक बार उसे भी. फिर बहुत ठण्डे
स्वर में कहा था ---“ मैं दिल्ली छोड़ दूँगा . इस सबके बाद मुझसे यहाँ रहा भी नही
जायेगा. तुम शायद यही लौटकर आना पसंद करोगी . इस घर को अपने नाम ही रहने दो.”
मंजरी तबतक यह तय नही कर पायी थी कि उसे कहाँ रहना है, क्या करना है.
केवल एक विश्वास था कि जिस सहज ढंग से वह साड़ी स्थिति में उबरी है, उसी तरह नई
ज़िन्दगी का रास्ता भी खोजेगी. फिर उसने घर अपने ही नाम रहने दिया. मानसिक तनाव के
ऐसे विकट क्षणों में भी उसकी व्यापारिक बुद्धि कुंठित नही हुयी, तभी उसे लगा कि
बिपिन से ब्याह करके आनेवाली मंजरी पूरी तरह मर चुकी है. यह तो उसकी लाश से पैदा
हुयी दूसरी मंजरी है.
एन समय पर बहुत बड़ा नाटक होने की सम्भावना थी. बच्चे को लेकर कुछ हो
सकता था, पर कुछ नही हुआ. उधर से बड़े सहज ढंग से कुछ औपचारिक वाक्यों का
आदान-प्रदान हो रहा था और भीतर से मन मरे हुए थे. ट्रेन प्लेटफार्म और प्लेटफार्म
पर खड़े विपिन को पीछे छोड़ आगे बढ़ गयी थी और सब कुछ मंजरी ने सूखी आँखों से देखा ही
था.
जब सब पीछे छुट गया तो भीतर से एक गहरा निःश्वास निकला था, शायद मुक्ति
का. अपने ही शारीर का फोड़ा जब सूख जाता है तो मरी हुयी खाल को शारीर से खींचकर अलग
करते समय जैसी भावना आती है, कुछ-कुछ वैसी ही.
दो महीने बाद वह उसी घर लौटी थी. सबने उसे देखकर पूछा था कि वह बीमार
रहकर आई है, वह बहुत दुबली हो गयी है, उसका चेहरा सूखा और कला हो गया है. उसे
स्वयं महसूस होता था, पर उन सबसे कुछ भी अंतर नही पड़ता था. उसने वहां आकर सबसे
पहले चश्मा लिया; क्योंकि उसकी आँखें एकाएक ही बहुत कमजोर हो गयी थी.
घर ज्यो-का-त्यों था, केवल वे सब चींजे वहां से हटा दी गयी थीं,
जिनके साथ बिपिन की स्मृति लिपटी थी, वह मेज़ भी ! मेजवाला कोना खली रहने पर भी उसके
मन में भय और वितृष्णा की मिली-जुली भावना पैदा किया करता था. बिपिन से मुक्त होकर
भी वह जैसे उससे से पुरी तरह मुक्त नही हो पा रही थी.
घर के बचे हुए सामान पर धुल की परतें जमी हुयी थीं. एक दिन तो वह उस
घर में कुछ नही कर पाई; पर दुसरे दिन ही वह सफाई में जुट गयी. बिपिन का कोई भी
चिन्ह वहां नही था, सिवाय एक-दो भरे हुए एशट्रे के . घर साफ़ हो गया था, फिर भी उसे
बराबर लगता रहा था कि एक बड़ी ही परिचित गंध है, जो उसमें बराबर बनी हुयी है. वह
किधर भी जाये, कहीं भी रहे उस गंध के अहसास से मुक्त नही हो पाती थी.
तब उसने घर के सारे खिड़की दरवाजे खुले रखने शुरू कर दिए थे – बहार की
साफ़ हवा, धुप आने के लिए. धीरे-धीरे खुले दरवाजों से हवा और धुप के साथ-साथ अनेक
तरह की गंध, अनेक चेहरे और अनेक नज़रें भी झाँकने लगी थी. कुछ तरस लिए और कुछ
आत्मीयता लिए. उसके साहस की प्रशंसा भी की जाती थी और कभी-कभी दबी जवान से यह
समाचार भी दिया जाता था कि बिपिन को किसी बच्ची और महिला के साथ देखा. बिपिन के
लिए स्वर में भर्त्सना रहती थी, पर उसे न अपनी प्रशंसा छूती थी, न बिपिन की
भर्त्सना.