आकाश में काली घटायें और उन घटाओ के बीच से झांकती हुयी डूबते सूरज
की लाली. बादलों को चीरते हुए बिजली की वो करकराहट और पेड़ की डालियों पर पत्तों की
झुरमुटो में खुद को छिपाते पक्षियों की आवाजें बार बार मन को अपनी ओर खींच लेते
थे.
घर के बरामदे में लगे झूले पर अपने हाथ-पैर को सिकोरे किसी बच्चे की
तरह सिमटी बैठी कविता कभी बाहर मौसम के मिजाज़ को देखती तो कभी अपने सामने पड़े टेबल
पर रखी हुयी चाय की पियाली से निकलते धुएँ को. कुछ ही क्षणों में चाय की प्याली को
अपनी हथेलिओं के बीच दबाये झूले से उतर बरामदे की सीढियों पर जा बैठी. अपने सर को
सीढियों के ओट से टिका कर मौसम की अठखेलियों को देखने में मग्न हो गयी.
देखते ही देखते पक्षियों का शोर कम हो गया और सूरज की लालिमा को ढकते
हुए काले आवारे बादलों ने आसमान में अपना राज फैला लिया था. बिजली की करकराहट अभी
भी थी और जैसे उसकी हर चमक के साथ अपनी गर्जन का सुर मिलाते हुए बादल भी उसके साथ
ही करकने लगे. बारिश की बूंदे धरती को भिंगो रही थी और मिट्टी एक सोंधी सी खुशबू
से फ़िजाओ को मदहोश करने लगी थी.
तभी पूरी तरह भींगा हुआ और सर्दियों की चपेट से छींकता हुआ कोई शख्स
दरवाज़े से दाखिल हुआ. अँधेरा घाना हो गया था और चेहरा भी साफ़ नज़र नही आता था. उस
अजनबी ने आहिस्ते से बारिश के थम जाने तक बरामदे में शरण मांगी और कविता न चाहते
हुए भी उसके अनुनय को ठुकरा न सकी. थोड़ी देर वो यूँ ही अपने भींगे हुए हाथों से
अपने गीले शर्ट को थोडा-थोडा निचोड़ता रहा और छींकता भी, उसकी हालत देख कविता ने
उससे घर के हॉल में चल कर बैठने को कहा और एक तौलिया देते हुए अपने सर को पोंछने
का इशारा कर चाय ले आई.
जब वह चाय के साथ हॉल में आई तब तक वह अपने सर- हाथ-पैर पोंछ चूका था
लेकिन छींक की वजह से उसका चेहरा और नाक बिलकुल लाल हो उठे थे. उसने धीरे से चाय
की प्याली उसके तरफ बढाया और उससे बातचीत शुरू करने की नियत से उसका नाम पूछा.
उसने भी चाय की एक चुस्की के साथ अपना नाम बताया “नवीन” नवीन वर्मा. एक छोटी सी औपचारिकता के बाद दोनों ने मौसम का जायज़ा लेने के लिए खिड़की से बहार झाँका. मौसम अभी भी अपने उफ़ान पर था. नवीन ने कविता की ओर कातर निगाहों से देखा जैसे कुछ देर और ठहर जाने की इज़ाज़त मांग रहा हो, कविता ने भी झिझकते हुए आँखों से इशारा कर इज़ाज़त दे दी. लेकिन एक अजनबी को इस तरह पनाह देना उसे
उसने भी चाय की एक चुस्की के साथ अपना नाम बताया “नवीन” नवीन वर्मा. एक छोटी सी औपचारिकता के बाद दोनों ने मौसम का जायज़ा लेने के लिए खिड़की से बहार झाँका. मौसम अभी भी अपने उफ़ान पर था. नवीन ने कविता की ओर कातर निगाहों से देखा जैसे कुछ देर और ठहर जाने की इज़ाज़त मांग रहा हो, कविता ने भी झिझकते हुए आँखों से इशारा कर इज़ाज़त दे दी. लेकिन एक अजनबी को इस तरह पनाह देना उसे
खल रहा था आखिर उसे जानती भी तो नही थी.
दोनों खामोश बैठे रहे.
करीब १ घंटे बीत जाने के बाद नवीन ने अपने गले को खांसते हुए साफ़
किया और छुपी तोड़ अपने बारे में बताने लगा. नया-नया आया है इस शहर में नौकरी करने
यही पास में उसका ऑफिस है और यहाँ से कुछ ६ km दूर उसने रूम ले रखा है. पगार कम
होने के कारण ऑफिस के आस-पास घर नही ले पाया. आज काम अधिक होने की वजह से बारिश में
फँस गया. उसने अकारण ही तकलीफ देने के लिए कविता से माफ़ी भी मांगी.
कविता गुमसुम उसकी बातों को सुन रही थी और जाने क्या सोच रही थी. तभी
बादल कडकी और बारिश और भी तेज़ हो गयी. कविता ने औपचारिक शब्दों में कहा: “ बारिश
तो आज जैसे थमने का नाम ही नही ले रही”.
नवीन शायद उसकी कशमकश को समझ रहा था, उसने थोडा हँसते हुए कहा: “
माफ़ी चाहता हूँ, पहले तो मैं यूँ ही बिन बुलाया मेहमान बन गया आपका और अब आपसे एक
छतरी उधार मांग रहा हूँ. बारिश तो रुक नही रही और रात भी बहुत हो चुकी है तो अगर
आप मुझे अपनी छतरी दे दें तो बड़ी मेहरबानी होगी.”
कविता कुछ कहती इसके पहले ही नवीन ने उसे टोका: ” यकीन कीजिये, उधार
ले रहा हूँ मैं लौटा दूंगा वापस”.
उसकी बातों पर मुस्कुराती हुयी कविता ने उसे छतरी देते हुए कहा : ”
जी, लौटायियेगा जरुर ”. और ऐसे ही मुस्कुराते हुए नवीन ने कविता से विदा ली....
To be
continue..