Saturday, 20 January 2018

शृंखला --- इतिहास भारत का कहानी -- “पद्मनाभपुरम महल”

पद्मनाभपुरम महल त्रवनकोर युग का महल है जो तमिलनाडु के पद्मनाभपुरम (कन्याकुमारी जिला) में स्थित है। केरल सरकार का स्वामित्व और इसे बनाए रखने का काम करती है।पद्मनाभपुरम, त्रवनकोर के हिन्दू राज्य की राजधानी का शहर था। ये नागरकोइल से लगभग 20 किमी दुरी पर है और तिरुवनंतपुरम से 50 किमी की दुरी पर है। वल्ली नामक नदी यहाँ से होकर गुजरती है।इस महल का निर्माण 1601 में इरवि वर्मा कुलासेखारा पेरूमल ने करवाया। इसने 1592 से 1609 तक वेनाद पर राज्य किया था। आधुनिक त्रवनकोर के संस्थापक अनिझाम थिरुमल मर्थंदा वर्मा (1706-1758) जिन्होंने 1729 से 1758 तक त्रवनकोर पर राज्य किया, इन्होने ही 1750 के करीब महल का पुनर्निर्माण किया।मर्थंदा वर्मा राजा ने अपने परिवार की देवता पद्मनाभ (भगवान विष्णु का अवतार) को राज्य समर्पित किया था और राज्य को पद्मनाभ के दास के रूप में चलाया था। इसलिए इसका नाम पद्मनाभपुरम पड़ा। 1795 में त्रवनकोर की राजधानी यहाँ से थिरुवनंतपुरम को स्थानांतरित कर दी गयी। फिर भी महल परिसर पारंपरिक केरल वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरनो में से एक है। और विशाल परिसर के कुछ हिस्सों को पारंपरिक केरल की शैली के वास्तुकला की पहचान है। ये महल तमिलनाडु राज्य से घेरा हुआ है फिर भी ये केरल का हिस्सा है और इसकी जमीन केरल सरकार की है। यह महल केरल सरकार के पुरातत्व विभाग ने बनाए रखा है।

पद्मनाभपुरम महल की संरचनाए

दक्षिणी महल – Southern Palace
दक्षिणी महल थाई कोत्तरामके इतना ही 400 साल पुराना है। अभी ये एक विरासत संग्रहालय के रूप में सभी एंटीक घरेलु लेख करिओस को दर्शाता है। इन सब का संग्रह उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक लोकाचार के बारे में जानकारी देता है।
क्वीन मदर पैलेस – Queen Mother Palace
पारंपरिक केरल शैली में बनाया हुआ मदर पैलेस इस महल परिसर में सबसे पुराना है जिसे माना जाता है की 16 वि शताब्दी के मध्य में बनाया गया। यहाँ के अंदरूनी आंगन में नालुकेट्टूनामक पारंपरिक केरल शैली में एक आंगन है। अन्दर के आंगन में चारो तरफ़ से उतरते हुए छत है। चार कोनो के चार चार स्तंभ छत को आधार देते है।
मदर पैलेस के दक्षिण पश्चिम के कोने में एक छोटा सा कमरा है, इसे एकांत मंडपमकहते है। इस एकांत मंडप के चारो ओर सुन्दर और जटिल लकड़ी की नक्काशी है।
विशेष रूप से जैतून की लकड़ी का स्तंभ जिसके ऊपर बहुत ही सुन्दर और विस्तृत पुष्प डिजाईन है।
कौंसिल चैम्बर – Council Chamber
पुरे महल के परिसर का सबसे सुन्दर हिस्सा राजा का कौंसिल चैम्बर है। इसकी अभ्रक की खिडकिया धुप और धुल को दूर रखती है और कौंसिल चैम्बर का अंदरूनी हिस्सा शीतल और अँधेरे में रहता है। लैटिस का नाजुक और सुन्दर काम पुरे कौंसिल चैम्बर में दिखाई देता है।
फर्श को भी सुन्दरता से बनाया जाता है। फर्श अँधेरा होती है और ये अलग अलग वस्तुवो से बनी हो ती है जिसमे जले नारियल के टुकड़े, सफ़ेद अंडे और कई सारी चीजे होती है। इसकी विशेष बात ये है की एक तरह के फर्श की अन्य कोई नक़ल बनाई नहीं जाती।
प्रदर्शन हॉल – Exhibition Hall
ये एक तुलनात्मक नजर से देखे तो नयी इमारत है जिसे महाराजा स्वाथि थिरूनल के कहने पर बनाया गया जिन्होंने 1829 से 1846 तक त्रवनकोर में राज्य किया। वो कला के एक महान पारखी थे विशेषरूप से संगीत और नृत्य के। वो ख़ुद संगीत बनाते थे और इन्होने अपने पीछे शास्त्रीय कार्नाटिक संगीत की समृद्ध विरासत छोड़ी थी।
नाटकशाला को ग्रेनाइट के स्तंभ थे और चमचमाती काली फर्श थी। वहा पर एक लकड़ी का बाड़ा था जहापर शाही घर की महिलाये बैठा करती थी और प्रदर्शन देखा करती थी।
चार मंजिली इमारत महल परिसर के मध्य में थी। जमीन के ताल में शाही खजाना रहता था।
पहली मंजिल पर राजा का शयनकक्ष होता था। अलंकृत चारपाई 64 तरह के वनौषधि के लकड़ी से बनी होती थी और ये सब डच व्यापारियों से भेट के रूप में मिलता था।
यहाँ के कमरे और महल परिसर के अन्य भाग में ज्यादातर अन्तर्निहित रिक्त स्थान थे जहा पर तलवार और खंजर जैसे हतियार रखे जाते थे। दुसरे मंजिल पर राजा की आराम करने का और अध्ययन करने का कमरा रहता था।
इनकी दीवारों पर 18 वे शताब्दी के चित्र रहते थे जो पुरानो के कुछ दृश्य होते थे और उस समय के त्रवनकोर के सामाजिक जीवन के कुछ दृश भी रहते थे। सबसे उपरी मंजिल पद्मनाभ स्वामी के लिए रहती थी। ये इमारत मार्थंद वर्मा के समय बनाई गयी। वो पद्मनाभ दास नाम से जाने जाते थे और त्रवनकोर का राज्य श्री पद्मनाभ स्वामी के दास के रूप में चलाते थे।

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Friday, 19 January 2018

शृंखला --- इतिहास भारत का कहानी -- “ सिताबर्डी किला ”

सिताबर्डी किला जो नागपुर महाराष्ट्र के उचे पहाड़ी पर स्थित है। मुधोल जी 2 भोसले यानी अप्पा साहेब भोसले ने इस किले को बनवाया था।  ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध में लड़ाई करने से पूर्व इस किले का निर्माण किया गया था। अभी सिताबर्डी नागपुर का एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र बन चूका है।
सिताबर्डी किले का इतिहास
सीताबर्डी के लड़ाई में जो ब्रिटिश सेना मारी गयी उसे किले के कब्र में दफनाया गया। 1857 के भारतीय विद्रोह में हारने के बाद टीपू सुलतान का पोता नवाब कादर अली और उसके आठ सहकारी को सीताबर्डी किले पर फासी दे दी गयी। जहा फासी दी गयी वहा पर एक मश्जिद बनाई गयी। कब्र और मश्जिद की व्यवस्था भारतीय सेना द्वारा की जाती है, जो मरने वालो की वीरता का प्रतिक है।
महात्मा गाँधी को 10 अप्रैल से 15 मई 1923 तक इस किले पर बंदी बनाया था। इंग्लैंड के राजा जॉर्ज 5 और रानी मैरी ने इस किले पर से नागपुर के लोगों से भेट की थी। इस घटना को याद रखने के लिए किले पर एक स्तंभ बनवाया गया।
सीताबर्डी का पूरा मैदान पेड़ो से रहित और पत्थरो से भरा है। इन दो पहाड़ी में जो उचाई में छोटी है, उत्तरी दिशा में है और इसे छोटी टेकडी कहते है जो बड़ी टेकडी के बंदूक की श्रुंखला में आती है, इसलिए उस मैदान को सुरक्षीत करना आवश्यक है। शहर का उपनगर छोटी टेकडी के नजदीक है।
यह किला अभी भारतीय सेना के 118 वी पैदल सेना बटालियन (प्रादेशिक सेना) ग्रेनेडियर्स का घर है। यह किला साल के तीन बार जनता के लिए खुला रहता है: 1 मई (महाराष्ट्र दिवस)15 अगस्त और 26 जनवरी।

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शृंखला --- इतिहास भारत का कहानी -- “ मत्तनचेरी महल ”

मत्तनचेरी पैलेस एक पुर्तगाली महल है, जो विशेषतः डच पैलेस के नाम से जाना जाता है। यह महल भारतीय राज्य केरला के कोच्ची के मत्तनचेरी में बना हुआ है। कोच्ची के राजाओ के समय के भित्ति चित्रण और वास्तुशिल्प आज भी हमें यहाँ देखने मिलते है।
इस महल का निर्माण पुर्तगालियो ने करवाया और भेट स्वरुप कोच्ची के राजा को दिया। इसके बाद 1663 में डच ने महल में कुछ सुधार और बदलाव भी किए और इसके बाद से इस महल को डच पैलेस के नाम से जाना जाने लगा।
कोच्ची के राजाओ ने भी महल में बहुत से सुधार किए। आज यह कोच्ची के राजाओ और भारत के बेहतरीन पौराणिक भित्ति चित्रों की चित्र गैलरी है। पुर्तगालियो ने जब कोच्ची के मंदिर को लूटा, तब बाद में राजा को मनाने के उद्देश्य से उन्होंने यह महल राजा को भेट स्वरुप दिया था।
1948 में कप्पड़ में वास्को दी गामा का स्वागत कोच्ची के शासको ने किया था। उन्हें फैक्ट्री बनाने का विशेष अधिकार भी दिया गया। इसके बाद पुर्तगालियो ने पुनः ज़मोरियन के आक्रमणों को खदेड़ना शुरू किया और कोच्ची के राजा इसके बाद वास्तविक रूप से पुर्तगालियो के जागीरदार बन चुके थे।
कुछ समय बाद पुर्तगालियो का स्थान डच ने ले लिया और 1663 में उन्होंने मत्तनचेरी पर भी कब्ज़ा कर लिया। परिणामस्वरूप हैदर अली ने जगह पर कब्ज़ा कर लिया और बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने महल पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।

मत्तनचेरी पैलेस की संरचना

यह महल चतुर्भुज संरचना में नालुकेट्टू स्टाइल में बना हुआ है, जो केरला की पारंपरिक आर्किटेक्चर स्टाइल है और साथ ही महल के बीच में एक आँगन भी बनाया गया है। महल के आँगन में पज्हयांनुर भगवतीको समर्पित एक मंदिर भी है, जो कोच्ची के शाही परिवारों की रक्षात्मक देवी है।
साथ ही महल के दोनों तरह दो मंदिर है, जिनमे से एक भगवान कृष्णा और दूसरा भगवान शिव को समर्पित है। महल के कुछ भाग को यूरोपियन प्रभाव के आधार पर बनाया गया है। महल का डाइनिंग हॉल की दीवारों पर लकड़ी की नक्काशियाँ की गयी है और पीतल के कप से अलंकृत भी किया गया है।
कोच्ची के राजा के 1864 के बाद के चित्रों को भी राज्याभिषेक हॉल में प्रदर्शित किया गया है। इन चित्रों को स्थानिक कलाकारों ने पश्चिमी स्टाइल में बनाया है। हॉल की छत को लकड़ी की नक्काशियो से अलंकृत किया गया है।महल की दूसरी प्रदर्शनीयो में हांथी के दाँत, हौद, शाही छत्री, राजसियो द्वारा उपयोग किये गये शाही वस्त्र, सिक्के, स्टेम्प और कलाकृतियाँ शामिल है।
1951 में मत्तनचेरी महल की मरम्मत की गयी और इसे केंद्रीय संरक्षित स्मारक घोषित किया गया। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने पहले से ही दूसरी बार महल की मरम्मत करवा रखी है। मरम्मत के दौरान महल में बहुत सी एतिहासिक वस्तुओ को पुनर्स्थापित किया गया और महल से जुड़े पौराणिक तथ्यों को पुनः प्रदर्शित किया गया।

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Thursday, 18 January 2018

एक औरत का पहला राजकीय प्रवास

कभी कभी कुछ ऐसी कवितायेँ नज़रों के सामने आ जाती हैं जिन्हें पढने के पश्चात कई बार पढने को आप स्वयं ही बाध्य हो जाते हैं.  आज ये एक ऐसी ही कविता कवयित्री डॉ अनामिका अम्बर जी के कलम से निकली हुयी आप भी पढ़े मेरे साथ...


वह होटल के कमरे में दाखिल हुई!
अपने अकेलेपन से उसने
बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया!
कमरे में अँधेरा था।
घुप्प अँधेरा था कुएँ का
उसके भीतर भी!

सारी दीवारें टटोलीं अँधेरे में,
लेकिन स्विचकहीं नहीं था!
पूरा खुला था दरवाजा,
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था!
सामने से गुजरा जो बेयरातो
आर्त्तभाव से उसे देखा!
उसने उलझन समझी और
बाहर खड़े-ही-खड़े
दरवाजा बन्द कर दिया!

जैसे ही दरवाजा बन्द हुआ,
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल!
भला बन्द होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?”
उसने सोचा।
डनलप पर लेटी
चटाई चुभी घर की
अन्दर कहीं-रीढ़ के भीतर!

तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत?
सात गलीचों के भीतर भी
उसको चुभ जाता है
कोई मटरदाना
आदिम स्मृतियों का?

पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था,
पर उसने बाँची टेलिफोन तालिका
और जानना चाहा
अन्तर्राष्ट्रीय दूरभाष का
ठीक-ठाक खर्चा।
फिर अपने सब डॉलर खर्च करके
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल!
सबसे पहले अपने बच्चे से कहा
हलो-हलो, बेटे
पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊँघ गए थे कैसे...
सबसे ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी
तुम हो मेरे सबसे प्यारे!

अन्तिम दोनों पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
ऑफिस में खिन्न बैठ अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से,
फिर चौके में चिन्तित, बर्तन खटकती अपनी माँ से!
...
अब उसकी हुई गिरफ्तारी।

पेशी हुई खुदा के सामने
कि इसी एक जुबाँ से उसने
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा
सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे!यह तो सरासर धोखा
सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा!
लेकिन ख़ुदा ने कलम रख दी,
और कहा औरत है, उसने यह गलत नहीं कहा।

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Wednesday, 17 January 2018

श्रृंखला---“अनमोल कहानी” कहानी –“डगलस बैडर ”

1930 में यूनाइटेड किंगडम में युवा पायलट जिनका नाम डगलस बैडर था वे वहाँ उडान भरने के लिए रहते थे। उन्हें एक बहुत बढ़िया पायलट कहा जाता था और वे अपने प्लेन से कई अद्भुत स्टंट भी करते थे जिसे साधारण पायलट करने का कभी सोच भी नही सकते थे, साधारण पायलट के लिए ऐसा कर पाना एक सपना मात्र था ।
दुर्भाग्यवश एक हादसे में उन्हें पैरो में चोट लग गयी और उन्हें घुटनों तक अपने पैरो को काटना पड़ा । इस दुखद घटना का अर्थ उनके उडान भरने के दिनों का खत्म होना था  लेकिन डगलस बैडर की चाहत और फितरत दोनों ही बड़े विचित्र एवं भिन्न थे ।
इस हादसे के बाद भी उन्होंने सिर्फ प्लेन नही उड़ाया बल्कि WW2 के समय उन्होंने पायलट को प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) भी दिया . अपने इसी जज़्बे और लगन के कारन वे युवा पायलटो के  हीरो और आदर्श बन गये । जर्मन प्लेन पर डायरेक्ट हिट से आक्रमण करने का उनका रिकॉर्ड वाकई लाजवाब है । उन्होंने दुश्मनों के सरजमीं  में जाकर उनके दांत खट्टे किये किन्तु  गोली लगने की वजह से वे पकड़ लिये गये. इसके उपरांत भी जर्मनी में उनका सम्मान कम न हुआ . इस वीर को सम्मानित करने के लक्ष्य से  उन्होंने विशेष अनुमति से डगलस को खाली पैरो की जोड़ी भी दी थी।
विकलांग होने के बावजूद वे युद्ध भूमि के कारावास से दो बार भागने में सफल हुए थे। उनमे अटूट हिम्मत और साहस का समावेश था इसीलिए यूनाइटेड किंगडम के सभी लोग उन्हें सम्मान देते है और उनकी इज्जत करते है। विकलांग होने के बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी कमी को अपनी कमजोरी नही बनने दिया।
यह उनकी हिम्मत, दृढ़निश्चय और देशप्रेम और अपने काम के प्रति उनका प्रेम ही था जिस वजह से उन्होंने इतनी ऊंचाई पर पहुचकर देश की सेवा की। और ऐसा करते ही उन्होंने पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल खड़ी कर दी की चाहे जीवन में कोई भी परिस्थिति आये यदि हम उसका सामना पूरी ताकत और हिम्मत के साथ करे तो हम किसी भी काम में सफलता जरुर पा सकते है।
डगलस ने यह साबित कर दिया की इंसान किसी भी परिस्थिति में अगर वो चाहे तो काम कर सकता है। आज वर्तमान में लोग काम ना करने के कई बहाने बनाते है और अपने काम से बचने की कोशिश करते है। उनके जीवन से हमें यह सिख मिलती है की हमें भी अपने जीवन में परिस्थितियों से घबराने की बजाए उनका डटकर सामना करना चाहिए।
किसी ने 101% सही कहा है कीहिम्मते मर्दा तो मदते खुदा…….

अर्थात किसी भी परिस्थिति को सुलझाने की यदि इंसान कोशिश करे तो उपर वाला भी उसकी सहायता करने को तैयार हो जाता है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण डगलस है। जिन्होंने एक हादसे में दोनो पैर खोने के बावजूद प्लेन उड़ाना नही छोड़ा। उनकी तरह हमें भी अपने जीवन और अपने काम से प्यार करते रहना चाहिए। तभी हम जीवन में आगे बढ़ पाएंगे।
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शृंखला --- इतिहास भारत का कहानी -- “ कलिंजर किला ”

कलिंजर मध्य भारत के बुंदेलखंड क्षेत्र का किला शहर है। कलिंजर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बाँदा में स्थित है, यह शहर वर्ल्ड हेरिटेज साईट और मंदिरों के शहर खजुराहो के पास ही स्थित है।
इन पहाडियों ने बुंदेलखंड पर शासन करने वाले बहुत से साम्राज्यों की सेवा की है, जिनमे 10 वी शताब्दी के राजपूतो का चंदेला साम्राज्य और रेवा के सोलंकी भी शामिल है। किले के परिसर में बहुत से मंदिर भी बने हुए है, जिनका संबंध तीसरी और पाँचवी शताब्दी के गुप्ता साम्राज्य से है।
कलिंजर किले का इतिहास 
16 वी शताब्दी के इतिहासकार के अनुसार, कलिंजर शहर की स्थापना 7 वी शताब्दी में केदार राजा ने की थी। लेकिन चंदेला शासको के समय में इस किले को पहचान मिली। चदेला के समय की किंवदंतियों के अनुसार, इस किले का निर्माण चंदेला शासको ने करवाया था। चंदेला को कलंजराधिपतिकी उपाधि भी दी गयी थी, जो किले से जुड़े हुए उनके महत्त्व को दर्शाती है।
एतिहासिक पृष्ठभूमि में इसका उपयोग बहुत से युद्धों और आक्रमणों में किया गया है। बहुत से साम्राज्यों हिन्दू राजाओ और मुस्लिम शासको ने इसे हासिल करने के लिए युद्ध किये है और इसप्रकार किला भी एक साम्राज्य से दुसरे साम्राज्य के अधीन जाने लगा। लेकिन चंदेला को छोड़कर कोई भी दूसरा शासक इसपर ज्यादा समय तक राज नही कर पाया।
1023 में महमूद गजनी ने किले पर आक्रमण किया। इतिहास में मुघल आक्रमणकर्ता बाबर एकमात्र ऐसा कमांडर था जिसने 1526 में किले पर कब्ज़ा किया था। साथ ही यह वही स्थान है जहाँ 1545 में शेर शाह सूरी की मृत्यु हुई थी।
1812 में ब्रिटिश सेना ने बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया। लंबे समय तक चले युद्ध में अंततः ब्रिटिशो ने किले को हासिल कर ही लिया। ब्रिटिशो ने जब कलिंजर पर कब्ज़ा कर लिया तब किले से सारे अधिकार नव-ब्रिटिश अधिकारियो को सौपी गयी, जिन्होंने किले को क्षतिग्रस्त कर दिया था। लेकिन आज भी किले को हम देख सकते है और किले को पर्यटकों के लिए खुला रखा गया है।
किंवदंतियाँ कहती है की मंथन के बाद हिन्दू भगवान शिव ने यहाँ जहर पिया और पिने के बाद उनका गला नीला हो चूका था। इसीलिए उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है।

इसीलिए कलिंजर में भगवान शिव के मंदिर को नीलकंठ के नाम से जाना जाता है। तभी से उस पर्वत को एक पवित्र जगह कहा जाता है। प्राकृतिक स्मारकों से घिरी यह जगह शांति और ध्यान लगाने के लिए एक आदर्श जगह है।
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