नमस्कार दोस्तों , आज बहुत दिनों के बाद कुछ विचारों के
साथ आप सब के बीच आई हूँ मैं. आज कल
कानों में एक साथ दो अलग-अलग रागों की तान
सुनाई दे रही हैं . ये कोई कहानी नही सुना रही मैं आज बल्कि एक बड़े
से दर्पण के चूर चूर हो जाने के बाद उसके छोटे से कांच के टुकड़े को आईने का स्वरुप देने की कोशिश कर रही हूँ
.
मेरी
ये कोशिश कितनी सार्थक है ये तो नही जानती
लेकिन उम्मीद है कि “ जब कलम
हाथों में ले लिया है तो कागज के पन्नो पर वर्तमान के सही रूप को रेखांकित कर सकूं ”
जैसा
कि मैंने कहा “आज
कल कानों में एक साथ दो अलग-अलग रागों की तान सुनाई दे रही हैं . मन बड़ा
बेचैन-सा हो रहा है कौन सी तान के राग को अलंकृत कर के जीवन के संगीत में किस रस
का पान करूँ ! क्योंकि दोनों ही गीतों के बोल और रस बिलकुल विपरीतार्थक हैं .“
एक ओर जहाँ कामनवेल्थ गेम्स में अपने देश की बेटियों की
विजयगाथा हवाओं में मधुर संगीत सी फैली हैं वहीँ दूसरी ओर नन्ही सहमी बच्चियों की
हृदयविदारक अंतर्वेदना से हवाओं में अकुलाहट है . एक
ओर सतरंगी विहान है तो दूसरी तरफ काली अँधेरी रात. ये दोनों ही रंग साथ एक ही जगह
बिखरे हैं लेकिन न तो एक दुसरे में मिल पा रहे हैं और नही अलग रह पा रहे हैं.
एक ओर से खुशियों की बारात आ रही है और दूसरी ओर से अरमानो की अर्थी
, समझने में असफल हूँ किस ओर बढ़ कर किसका स्वागत करूँ ? इस मंजर को देख आँखों के
आँसू भी असमंजस में हैं ख़ुशी के इज़हार में आँखों से झलके या गम में आँखों के किसी
कोने से चुप चाप ढलक जाएँ . बड़ी गहन समस्या है...
हमारी मातृभूमि के आँचल में अनेको रंग एक साथ अपनी पहचान बनाते
हैं लेकिन आज के ये दोनों ही रंग अलग हैं . एक रंग जितनी मोहक है दूसरी उतनी ही
घ्रीनास्पद. एक रंग बेटिओं के बढ़ते कदम को और उनके सजदे में झुके आसमान को चित्रित
कर रहा है तो दूसरा बलात्कार जैसे घिनोने अपराधों की करतूत से दामन को कलंकित कर
रहा है.बेटियों को पढने की, आगे बढ़ने की , देश में-विदेश में , चाँद पर
दूर गगन में जाने की आज़ादी तो मिल गयी है लेकिन अपने ही घर अपने ही समाज में
सुरक्षा की जरुरत पड़ती है उन्हें. आज भी ऐसा क्यों है ? ये समझ से परे है ...
लेकिन अपने देश के गौरवान्वित इतिहास में चाहे वो रामराज्य
हो या फिर आज का वर्तमान , कोई समानता मुझे नज़र आती है तो वो है “स्त्रियों की हालत
”. हमें माँ, बहन,बेटी,बहू,देवी और कितने ही रिश्तों में तो सदा-सर्वदा से पहचान मिलती आई है और हमने अपने हर रिश्ते की मान-मर्यादा भी निभाई है लेकिन इंतज़ार आज
भी उस दिन का है जब हमे इंसानों के रूप में भी पहचान मिलेगी और हमे भी निडर होकर
जीने का मौका मिले.
एक लड़की
होना क्या होता है , कितने मान-मर्यादाओं को अपने कंधे पर ओढ़ कर चलना होता है,
कितने धर्म-कितने रिश्तों को सवारने के कठिन डगर पर चलना होता है ? ये बताना संभव नही है लेकिन हर पल अपने मन में
डर के बोझ को ले कर हरेक कदम रखना कितना
भारी होता है? एक औरत के मन की वेदना को शायद कुछ शब्दों में आपको इसका थोडा एहसास दिला सकूं
मैं :-
मैं
नारी सदियों से
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी ,
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन ,
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण |
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी ,
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन ,
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण |
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़
दानी बन अपना निभाया फर्ज़,
साथ में कुछ उपहार दिए
अपने सब कर्ज़ उतार दिए,
सौंप दिया किसी को जीवन
कन्या से बन गई पत्नी धन
समझा जहां पैरों की दासी
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी,
जब चाहा मुझको अपनाया
मन न माना तो ठुकराया,
मेरी चाहत को भुला दिया
कांटों की सेज़ पे सुला दिया ,
मार दी मेरी हर चाहत
हर क्षण ही होती रही आहत |
माँ बनकर जब मैनें जाना
थोडा तो खुद को पहचाना,
फिर भी बन गई मैं मातृ धन
नहीं रहा कोई खुद का जीवन ,
चलती रही पर पथ अनजाना
बस गुमनामी में खो जाना |
कभी आई थी सीता बनकर
पछताई मृगेच्छा कर ,
लांघी क्या इक सीमा मैने
हर युग में मिले मुझको ताने |
राधा बनकर मैं ही रोई
भटकी वन वन खोई खोई ,
कभी पांचाली बनकर रोई
पतियों ने मर्यादा खोई ,
दांव पे मुझको लगा दिया
अपना छोटापन दिखा दिया,
मैं रोती रही चिल्लाती रही
पतिव्रता स्वयं को बताती रही,
भरी सभा में बैठे पांच पति
की गई मेरी ऐसी दुर्गति ,
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
बस मुझ पर ही कलंक लागा |
फिर बन आई झांसी रानी
नारी से बन गई मर्दानी ,
अब गीत मेरे सब गाते हैं
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं,
मैने तो उठा लिया बीडा
पर नहीं दिखी मेरी पीडा ,
न देखा मैनें स्व यौवन
विधवापन में खोया बचपन |
न माँ बनी मै माँ बनकर
सोई कांटों की सेज़ जाकर,
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया,
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मै भटकी नारी
सोई कांटों की सेज़ जाकर,
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया,
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मै भटकी नारी
हर युग में मै भटकी नारी ||