खुले आकाश के नीचे दूरों
तक फैली हुई कुछ हरी और सफ़ेद घासों की मिली-जुली चादर. दूर में खड़ा वो सुखा पेड़ और
उसपर बैठे परिंदे. शाम की श्यामल धूप और सामने ही एक गेंद को लात मारते कुछ नन्हे-
मुन्हे बच्चे. निगाहें इधर-उधर घूम-फिरकर वापस वहीँ आ टिकीं उस सूखे पेड़ पर जिसके
पत्ते झड़ चुके थे और उसकी हरियाली ने शायद दम तोड़ दिया था लेकिन जड़ों की मजबूत पकड़
अभी भी मिट्टी को अपने जी-जान से पकडे खड़ी थी. शायद उम्मीद थी उनमे पत्तों के वापस
आने की ; मुद्दतों बाद ही सही. उस पेड़ को एकटक निहारती वो बूढी आँखें अपनी नमी खो
चुकी थीं. ऐसा लगता था मानो एक ज़माने से अपने पानी को सूखता हुआ देखती आई हों. उन
आँखों में एक ठहराव था और अपलक देखती नज़रों में शायद कुछ बूँदें उभर कर अनायाश ही
गेशुयों से ढलकते हुए उनके उबर-खाबर लेकिन मर्मस्पर्शी सफ़ेद गालों पर एक तिरछी
रेखा में बहने लगे.
थोड़ी देर तक मैं उस
बुजुर्ग जोड़े को देखती रही. उन बूढी आँखों से जब कुछ देर बाद आसुओं के बहाब में
थोड़ी स्थिरता और गतिहीनता आई तो उनमे कुछ अलग नज़र आया, दोनों ने आहिस्ता से
अपने-अपने गर्दनों को हिलाया और एक-दूसरे को आँखों ही आँखों में कुछ कह गए. उनके
चेहरे पर एक बेबशी उभर आई और होंठ के कपोले हिल कर फिर से खामोश हो गए बिना कुछ
कहे शायद उन्होंने सब कुछ कह दिया हो. धीरे-धीरे एक हलचल सी महसूस हुई उनके बीच. वो
बुजुर्ग शायद दम्पति थे, उनके हाथ हिले और आहिस्ता से एक दुसरे को पकड़ कर शांत हो
गये. लगा मनो एक शांति के बाद जोर का तूफ़ान उठा हो और फिर उस तूफ़ान के थमने के बाद
वही ख़ामोशी चारो ओर पसर गयी हो लेकिन दोनों खामोशियाँ भी एक-दुसरे से बेहद अलग थी
और उसका प्रभाव भी.
अचानक मुझे अहसाह हुआ जैसे
एक लम्बी बेहोशी के बाद मुझे होश आया हो और मैंने अपनी नज़रों को उनके चेहरे से हटाकर
आस-पास के माहौल का ब्यौरा किया. शाम ढलने को आ गयी थी सूर्य अपनी किरणों को, अपनी
लाली को समेटता हुआ नज़र आया और आस-पास खेलते हुए बच्चे भी घर वापसी की तैयारी में लीन
थे. मैंने अपनी नज़रों को एक सिरे से दुसरे सिरे तक दौड़ाया और फिर मेरी नज़रें उस
बुजुर्ग जोड़े पर जा टिकीं जो अभी भी वहाँ वैसे ही बैठे थे और ढलती शाम के उभरते अँधेरे
में भी उस पेड़ को निहार रहे थे... कुछ देर मैं भी उस पेड़ को देखने लगी शायद ये सोच
कर कि उनके इस तरह अपलक उस पेड़ को देखने का कारण समझ पाऊं मैं लेकिन मेरी नज़रें
इतनी पारखी नही हैं. मुझे जो नज़र आया वो एक बिना पत्तों के रुख-सुखा पेड़ था, जो
अभी भी अपनी जड़ों से मिटटी की पकड़ बनाये हुआ था. रहा नही गया मुझसे, तो मैं यूँ ही
धीरे क़दमों से उनकी ओर बढ़ चली. पास जाकर
देखा तो
“ उनके हाथ एक दुसरे को
कसकर थामे थे जैसे दिलासा दे रहे हों ... घबराना मत, मैं हूँ न तुम्हारे साथ ...
और आँखें पेड़ पर कहीं टिकीं हुई.. उनके लबों पर ख़ामोशी पसरी हुई थी लेकिन दिल में
शायद कोई भूचाल उठा था ...”
मुझे एक बहुत ही अशांत और
मन को बेचैन कर देने वाली ख़ामोशी का अहसाह हुआ वहाँ. बहुत ही सकुचाये मन से और
अपने भीतर एक साहस बटोरते हुए मैंने एक धीमी आवाज़ दी उन्हें “अंकल आप लोग ठीक हैं.
एनी प्रॉब्लम ?” उन्होंने अपनी नज़रें उठाकर मेरी तरफ देखा और एक बेमानी सी हँसी अपने
होठों पर ला कर मुझे एक मद्धिम सी आवाज़ में जवाब दिया “ यस, वी आर फाइन.”
उनकी आवाज़ में मुझे एक
दर्द से ज्यादा अकेलेपन का आभास हुआ. मैं वहीँ खड़ी कुछ सोचने लगी, तभी मुझे उनकी
आवाज़ सुनाई दी “आप जॉब करते हो बेटा ?” मैंने भी जवाब में “जी” कहा और उनके आगे
कुछ बोलने का इंतज़ार करने लगी.