उसकी अलमारी बहुत बड़ी थी और तीन दराजों (कम्पार्टमेंट) में बाटी हुयी
थी . बायीं ओर वाली दराज पर्सनल थी , बीच वाली पारिवारिक ( फॅमिली) और दायीं ओर
वाली सामाजिक (सोशल) समझ लीजिये. यह डिवीज़न मंजरी ने ही किया था, उन दिनों जबकि उन
दोनो के बीच भी एक डिवीज़न-लाइन (divider) खिंच गया था. शुरुआत में तो उसका ध्यान
दराजों की ओर तो क्या जाता, अलमारी की ओर भी नही गया था. तब सारे घर में पलंग ही
सबसे अधिक आकर्षक लगता था और मन करता था कि दिन के २४ घंटे किसी तरह रात के ८ (आठ
) घंटों में ही सिमट जाये. बिपिन का शरीर ही उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का पर्याय
बना हुआ था और यह बात कभी दिमाग में नही आती थी कि शरीर से परे भी उसका कोई
व्यक्तित्व और अस्तित्व हो सकता है, सम्बन्ध और संपर्क हो सकते हैं, कोई अपना जीवन
हो सकता है.
पर यह सब तो शुरुआत की बातें थी. उन दिनों की, जब मनों में कोई भेद
नही था. और इसीलिए जैसे सब तरफ के भेद मिट गये थे. सारी ऋतुएं वसंत के सामान
सुहावनी लगती थी. आराम के समय काम की चुस्ती का अहसास होता था और काम करने में भी
अजीब तरह का आराम मिलता था.
वह वसंत की सुहावनी सुबह थी. गीले बालों का एक ढीला सा जुड़ा बना कर
बड़े ही मन से मंजरी ने पोहा (poha) बनाया था. हर काम बड़े मन से करती थी और उसके
गाने सारे घर में गूंजा करते थे. वह ट्रे में पोहा ,पानी,चाय सजा कर ले गयी,तभी
उसने विपिन को कुछ कागजों में डूबे हुए पाया.
“इतना मगन होकर क्या पढ़ रहे हो?” उसने हँसते हुए पूछा था तो विपिन
हल्के-से सकपका गया और सारी बात को टालते हुए उसने ढेर-सा पोहा अपनी प्लेट में
डाला था. मंजरी को लगा कि उस दिन वह कुछ जरुरत से ज्यादा तारीफ़ के मूड में था. वह
लगातार प्रसंगहीन ( baseless talk ) बातें किये जा रहा था, पर मंजरी के मन को छुए
बगैर ही निकल गया.
रोज की तरह दोनों साथ ही घर से निकले थे, पर वह एक पीरियड के बाद ही
सर-दर्द का बहाना करके घर लौट आयी. सारे रास्ते उसका सर चकराता रहा था. घर में
घुसते समय जाने क्यों, लगा, किसी और के घर में घुस रही है.
To be continue...