रूप के बादल यहाँ बरसे,
कि यह मन हो गया गीला !
चाँद-बदली में छिपा तो बहुत भाया
ज्यों किसी को,
फिर किसी का ख्याल आया
और, पेड़ों की सघन-छाया हुई काली
और, साँसे कांपी,प्यार के डर से
रूप के बादल यहाँ बरसे ....
सामने का ताल,
जैसे खो गया है
दर्द को यह क्या अचानक हो गया है?
विहाग ने आवाज़ दी जैसे किसी को...
कौन गुज़रा प्राण की सुनी डगर से !
रूप के बादल यहाँ बरसे....
दूर, ओ तुम !
दूर क्यों हो, पास आओ
और, ऐसे में ज़रा धीरज बंधाओ...
घोल दो मेरे स्वरों में कुछ नवल स्वर,
आज क्यों यह कंठ, क्यूँ यह गीत तरसे !
रूप के बादल यहाँ बरसे....