Monday, 29 May 2017

उम्मीद

उसने अपने होठो पर औपचारिकता की एक फीकी सी मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए उत्तर दिया:
   “ बरसात के बाद अक्सर मौसम सुहाना हो ही जाता है... " 
और उसके आँखों से आंसुओं की एक पतली-सी धार उसके गालों पर ढलक गयी....

हिरणी के आँखों जैसे चंचल नयन-नक़्श ,सुराही-सी गर्दन, गोल से चेहरे पर धनुष के आकर के लाल-सुर्ख होंठ, बेहद ही सुघड़ लंबी और ऊँची नाक, घने मेघों से काले बाल की कुछ लटें बड़े ही बेतकल्लुफ़ी से कानों के पीछे से निकल कर उसके सफ़ेद-नूरानी चेहरे पर अठखेलियां कर रहे थे.. चेहरा इतना खूबसूरत की बस  एक नज़र कोई देख ले तो नज़रें ही हटें..
इस खूबसूरती की मालकिन सद्यःस्नाता ने जब अपने बालों को तौलिये से पोछते हुए घर के ड्राइंग रूम में प्रवेश किया तो उसके हाथो में उप्पर तक लगी मेहंदी, माथे पर एक छोटी सी बिंदी, हलके हरे रंग की वो पतली बॉर्डर वाली साड़ी, साड़ी से मैच करती हुयी हरी कांच की चूड़ियां और आँखों में ख़ुशी की चमक देख ऐसा लगा जैसे किसी शिल्पकार ने अभी -अभी अपनी सर्वोत्तम शिल्प सामने रख दी हो.. बिलकुल किसी अप्सरा की मूर्ति।
जब उसने हौले से स्वर में वहां बैठे सभी लोगो को नमस्कार किया तो उसकी आवाज़ की खनक ने कानों में मिश्री घोल दी. उसके शरीर की बनावट और उसका यह रूप उसके नाम को सार्थकता प्रदान कर रहे थे।  "मयूरी " जितना खूबसूरत नाम उतनी ही चंचल। 
उसकी खूबसूरती और उसके कद-काठी का मैं आंकलन कर ही रही थी की तभी उसने अपने पति का परिचय देते हुए कहा : "जी , इनसे मिलिए ये हैं मेरे सिरमौर, मेरे हमसफ़र मेरे पति स्वपनील" मैं अपने ख्यालों में ब्यस्तता के कारण थोड़ी हड़बड़ायी और जब नज़रों को उनके पति के चेहरे की तरफ मुखातिब किया। लम्बा ऊँचा कद, बड़ी-बड़ी भूरी आँखे , ललाट पर थोड़ा नीचे तक लटकटे हुए बाल.खड़ी लेकिन मोटी नाक , बेहद ही आकर्षक और सुर्ख गुलाब की पंखुरियों से होंठ और होठो के नीचे एक छोटा सा तिल।  दोनों को  साथ देखकर यकीं हो गया कि ईश्वर सबकी जोड़ियां स्वयं बनता है.
मयूरी और स्वप्निल से मिलने का मेरा उद्देश्य बहुत ही सरल सा था।  मैं तो बस उनके तीन मंज़िले मकान की तीसरी मंज़िल को किराए पर लेने के उद्देश्य से वहां गयी थी।  मुंबई जैसे बड़े शहर में रहने का ठिकाना खोजना और खोजने के उपरांत मनोकुल ठिकाना मिलना कठिन है।  ईश्वर की कृपादृष्टि से मुझे इनका मकान अपने अनुरूप लगा था इसलिए मैं वहां उनसे बातचीत की मनोकामना से उपस्थित हुयी थी।  किस्मत अच्छी थी तो बात  बन गयी और अगले महीने की १ तारीख से मुझे वहां रहने की इज़ाज़त भी मिल गयी थी.
मैं उनके घर में रहने लगी हालाँकि ऑफिस से ज्यादा छुट्टी  रहने के कारण कभी गप-सप करने  की फुरसत नहीं मिलती थी फिर भी आते-जाते मयूरी से हाय-हेलो  हो ही जाता था।  जैसे जैसे टाइम बीतता गया हमारी दोस्ती होती गयी।  छुटियों वाले दिन अक़्सर साथ में ही ब्रेकफास्ट और लंच हो जाता था। स्वप्निल  कम ही पाते थे क्यूँकि  वो अक्सर काम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे। हफ्ते में  - दिन वो दिखाई दे जाते थे। वक़्त को बीतते देर नहीं लगती...
बात कुछ ६ महीने बाद की है।  उस शाम मैं ऑफिस से जल्दी आ गयी थी, घर में भी कोई काम न होने के कारण बाजार जाने का मन बना लिया था।  तो आनन्-फानन में मैं सीढ़ियों से झट-पट उतर आयी. अभी घर से कुछ  दूर निकली ही थी कि  सहसा मन में ख्याल आया अकेले जाने से बेहतर मयूरी को साथ ले लू...  मैंने अपने क़दमों को वापस घर की ओर मोड़ दिए।  अभी दरवाजे तक पहुंची ही थी कि मुझे अंदर से सिसकियाँ सुनाई दीं।  कुछ देर मैं क्या करुँ ? क्या न करूँ? की  स्थिति में खड़ी  रही फिर तनिक रुक कर अपने अंदर के सहस को बटोर कर दरवाज़े पर दस्तक दी. ... कुछ देर तक कोई आवाज़ न आयी तो मैंने दुबारा दस्तक दी. लेकिन कोई आवाज़ या किसी के आने की आहाट ना पा के मैं जाने ही वाली थी कि  दरवाज़ा धीरे-से  खुला।  सामने मयूरी खड़ी  थी लेकिन उसका ये रूप मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था.. 

                                                                                            To be continue …