उनकी आवाज़ में मुझे एक
दर्द से ज्यादा अकेलेपन का आभास हुआ. मैं वहीँ खड़ी कुछ सोचने लगी, तभी मुझे उनकी
आवाज़ सुनाई दी “आप जॉब करते हो बेटा ?” मैंने भी जवाब में “जी” कहा और उनके आगे
कुछ बोलने का इंतज़ार करने लगी.
कुछ देर यूँ ही सनाट्टा
छाया रहा और उसके बाद एक बहुत ही मीठी कानों में रस भरने वाली लेकिन एकाकीपूर्ण आवाज़ मेरे कानों में पड़ी,
मैं किसी अबोध बच्चे की तरह उस आवाज़ की मिठास और दर्द में अंतर समझने कि कोशिश कर
रही थी.. तभी वह आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी : “ परिवार के साथ रहते हो यहाँ ?”
मैंने बड़े ही सहज भाव से
उत्तर दिया : “जी नहीं, मैं यहाँ जॉब के लिए रहती हूँ”
मेरे इस उत्तर का प्रतिउत्तर
मुझे उनके मुखाभाव से मिला. उनके चेहरे पर एक उदासीन और मार्मिक हँसी उभरती हुई
नज़र आयी. धीरे-धीरे वही उदासीनता उनकी आँखों में उतर गयी और लब फिर से सिहर कर
खामोश हो गये.
मैंने ख़ामोशी को तोड़ने के
लिए उनसे पूछ लिया : “ आप लोग अपनी फॅमिली के साथ यहाँ रहते हैं ?”
मेरे सवाल के लिए शायद वो
तैयार नही थे या फिर जवाब देना सहज नही था. उन दोनों ने एक दुसरे की आँखों में देखा और फिर मेरी ओर देख कर एक फीकी
मुस्कान के साथ कहा: “ नहीं बेटा, हम दोनों यहाँ एक साथ रहते हैं और बाकी का
परिवार यही दो स्टेशन आगे रहता है .” इतना कहते कहते उनके आँखों से आसूँ की एक पटली
सी धार ढुलकते हुए उनके गलों पर आ गयी.
आसूँ देख कर पहले तो मैं
ठिठक गयी, मन में एक डर भी आ गया कि कहीं अनजाने में ही मैंने उनकी किसी दुखती हुई
नस पर हाथ तो नही रख दिया ??...
मैं अपने कशमकश में उलझी
हुई थी तभी उन्होंने आगे कहना शुरु किया : “ २ बच्चे हैं मेरे. दोनों की शादी हो
गयी अब उनके भी छोटे- छोटे बच्चे हैं. बहुत प्यारे हैं वो. वो हमारे साथ नही रहते,
घर छोटा पड़ जाता है परिवार बड़ा है.” इतना कह कर उन्होंने एक गहरी साँस ली, फिर बोल
पड़े “ यही जॉब करते हैं दोनों, अपना फ्लैट ले रखा है पास में ही है. वहाँ से उनका ऑफिस
नजदीक है, सहूलियत होती है.”
मैंने चुप चाप सुन रही थी
उन्हें... और अँधेरे में भी उस दूर खड़े पेड़ की टहनियों को ढूंढ रही थी.. शायद अब
उनका यूँ उस तरह पेड़ की ओर टकटकी लगा कर देखना थोडा-थोड़ा समझ में आने लगा था मुझे..
मैंने यूँ ही धीमी सी आवाज़ में पूछा : “आप उनके साथ नही रहते ?” और पूछने के साथ
ही नज़रे नीची कर उनके जवाब का इन्तेज़ार करने लगी.
उनके मुँह से एक उपेछित
सी हँसी निकली और उसके साथ ही जवाब भी और एक सवाल भी ...:: “ नहीं बेटा, ‘ २ बी एच
के ’ है न जगह की कमी है.. और वहाँ जाकर उन्हें परेशान नही करना चाहते. आजकल बच्चों
के पास वक़्त भी कहाँ है? उनके अपने काम हैं अपना जीवन है... उसमे हमारे लिए न तो
जगह बच पायी है और नहीं समय ... “ इस वाक्य के साथ ही उनकी जुबान फिर से चुप हो
गयी ... लेकिन इस बार की ख़ामोशी ने वहाँ की हवाओं में एक कुम्हालाहट, एक बेचैनी ला
दी थी. मैं न तो कुछ बोल पायी और नहीं अपने अन्दर इतना साहस महसूस कर पायी कि अपनी
नज़रों को उठाकर उनकी तरफ देख पाऊं. बस ज़मीन की तरफ नज़रें किये सोचती रही.
क्या सोच रही थी ये तो
ठीक ठीक याद नही , लेकिन मन के पटल पर वो सूखा पेड़ जिसके पत्ते झड़ चुके थे और उसकी
हरियाली ने शायद दम तोड़ दिया था लेकिन जड़ों की मजबूत पकड़ अभी भी मिट्टी को अपने
जी-जान से पकडे खड़ी थी उभर आया.
मेरा मन अभी भी अपने ख्यालों में ही था जब फिर से उनकी आवाज़ आई : रात काफी हो गयी, अब चलना चाहिए. इतना कहकर उन्होंने एक- दूसरे का हाथ थमा और हलके क़दमों के साथ अपना भारी मन लेकर चल पड़े..
मेरा मन अभी भी अपने ख्यालों में ही था जब फिर से उनकी आवाज़ आई : रात काफी हो गयी, अब चलना चाहिए. इतना कहकर उन्होंने एक- दूसरे का हाथ थमा और हलके क़दमों के साथ अपना भारी मन लेकर चल पड़े..
मैंने भी उन्हें गुड नाईट
बोला और आहिस्ता-आहिस्ता अपने घर की ओर चल पड़ी, ...