Thursday, 13 April 2017

“कन्यादान”

                                                     

भीनी –भीनी सी महक अभी भी उन फूलों की लड़ियों से आ रहे थे जो घर के दरवाजे से लिपटे पड़े थे. उन फूलों को देख के ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी ने बड़े प्यार से उन्हें सजाया हो लेकिन उनकी अधकुचली सी हालत उनकी मायूसी की झलक दे रहे थे. खुबसूरत फूलों की लड़ियाँ घर के कोने-कोने में ऐसे सजी थी जैसे किसी बाग़ में नया नया बसंत आया हो. घर का हरेक कोना बेहद ही खुबसूरत लग रहा था. बिजली के बल्ब लड़ियों में यूँ पिरोये गए थे जैसे अँधेरे का नमो-निशान न नज़र आये. रोलेक्स की कतारों से घर-द्वार-गलियों को बड़े ही बेहतरीन ढंग से सुसज्जित किया गया था. एक नज़र देखने से ऐसा लग रहा था जैसे किसी फूलों के बाग़ को कोटि दीपों को प्रज्वलित कर रौशनी से नहला दिया गया हो.. चन्द्रमा की श्यामल सोमता ने अपने हाथों से उस बाग़ को सींचा था और सूरज की पहली किरण ने उसका अभिषेक किया था...
घर का द्वार जितना आकर्षक लग रहा था आँगन उतनी ही उदासीन थी. फूलों की खुशबू तो थी लेकिन वो भी दिल को कचोट रहे थे. बिजली के बल्ब की रौशनी भी इतनी प्रखर महसूस हो रही थी की जैसे बदन जल उठे. घर के कोने से कोने से करुन-रुदन की सिसकियाँ अब तक सुनी जा सकती थी..
आँगन में बैठे घरवाले मिटटी के पुतले से बेजान बैठे थे. उनके चेहरे पर ख़ुशी और गम का भाव एक साथ तैर रहा था ... आँखों में आंसुओं का सैलाब था और होठ खामोश हो चरों तरफ नज़रों को दौड़ा कर जैसे कुछ तलाश रहे थे.. सब एक साथ बैठे थे लेकिन किसी के पास कहने कुछ भी ना था, या फिर इतना कुछ उनके मन में था जिसका भ्याखन संभव ना था. सबकी आँखे नम थी और मानसपटल पर कोई यादों का कारवां गुजर रहा था...
घर की सजावट से तो किसी ख़ुशी का अभाश हो रहा था लेकिन घर की ये ख़ामोशी दिल दहला देने वाली थी ... कुछ मेहमान जा चुके थे, कुछ जाने को तैयार बैठे थे.. कोई कुछ बोलता न था बस चेहरे का भाव ही एक दूसरे की मन की बात की पुष्टि कर रहे थे...
जब ये शम्मां देख मन कौतुहल से लबरेज हो गया तो रहा न गया सो वहीँ मौजूद एक सज्जन से पूछ ही लिया “यहाँ कोई कार्यक्रम संपन हुआ है क्या ?” सज्जन ने जिस भाव से अपनी मुखाकृति को हमारी तरफ उठा कर, एक हलकी साँस लेते हुए अपने अधखुले होठो को हिलाने का प्रयास किया ; ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बड़ी बात हो गयी हो. उन सबके जीवन में कोई उथल –पुथल सा मच गया हो, वो भी इतना तीव्र कि उसने सबको खामोश कर दिया हो. कुछ समय बीत जाने के बाद उन सज्जन ने बताया कि हाँ यहाँ “कन्यादान” हुआ है. अभी अभी कुछ ही घंटे पहले उस बेटी की बिदाई हुई है जिसके हंसी से ये घर गूंजता था. यहाँ बैठे लोगों के चेहरे जो आप देख रहे हैं वो उस बेटी के घर से जाने से ग़मगीन नही हैं; समाज के प्रथा के बोझ से है.. जिसके अनुसार अब इनकी अपनी ही बेटी, इनके कलेजे का टुकड़ा “परायी” कहलाएगी. वो अपने ही घर में अतिथियों सी आएगी, अपने ही हाथों से सजाये गुलदस्ते का फूल बदलने से पहले अपनी भाभी, अपनी माँ, अपनी बहन से इज़ाज़त लेगी. जिस माँ के हजार कहने पर भी खुद के लिए एक गिलास पानी भी न लेती थी, अब अपने सारे काम खुद करना सीख जाएगी. जिस भाई से हर बात में अपना मनुहार करवाती थी, अब उससे ही अपनी बातें कहने में उससे हिचक होने लगेगी... सिर्फ इसलिए क्युकी उसका “कन्यादान” हो गया, अब वह किसी और के घर की इज़त बन गयी और अपने ही माँ-बाप के लिए परायी.
कल तक जो चिड़ियों की तरह चहकती फिरती थी, फूलों की तरह खिलखिलाती रहती थी, पुरे दिन जिसे भाई-बहनों के साथ हुडदंग के सिवा कुछ सूझता न था, वो अब समझदार सलीकेदार हो जाएगी. घर के हर चीज़ पर अपना हक जताने वाली वो बेटी अब उन्ही चीजों को अजनबियों की तरह इस्तेमाल करेगी और अपने ही परिवार में आने के लिए उसे इज़ाज़त लेनी पड़ेगी ... “कन्यादान” हुआ है साहब लेकिन एक पिता ने सिर्फ “कन्यादान” नही, किया, एक भाई ने अपने “जज्बातों का दान”, किया है, एक माँ ने अपना “ह्रदय-दान”, किया है , एक बेटी के “अरमानो का दान” भी हुआ है.

देखने और सुनने में बहुत ही सहज सा एक विवाह संपन हुआ है लेकिन उस विवाह की पवित्र अग्नि में माँ-बाप ने अपने कलेजे को निकाल के दान किया है... कैसे समझाऊं आपको ये जो ख़ामोशी है उसका यथार्थ. न तो मै आपको समझा सकूँगा और नहीं आप समझ सकेंगे कन्यादान के सुख को और न ही  उसके समाजिक स्वरुप को.