उसकी अलमारी बहुत बड़ी थी और तीन दराजों (कम्पार्टमेंट) में बाटी हुयी थी .
बायीं ओर वाली दराज पर्सनल थी , बीच वाली पारिवारिक ( फॅमिली) और दायीं ओर वाली
सामाजिक (सोशल) समझ लीजिये. यह डिवीज़न मंजरी ने ही किया था, उन दिनों जबकि उन दोनो
के बीच भी एक डिवीज़न-लाइन (divider) खिंच गया था.
क्यूंकि दराज़ में केवल बिपिन का अतीत ही नही था, वर्तमान भी था और
उसमे भविष्य की योजनायें थीं. वह जैसे-जैसे बिपिन के निजी जीवन के नजदीक होती जा
रही थी, अनजाने और अनचाहे ही बिपिन से दूर होती जा रही थी. धीरे-धीरे मनों की ये
दूरी शरीर में फैलती चली गयी थी. और वे अनायास ही एक-दूसरे के लिए निहायत
अपरिचित-से हो गये. फिर उनके हिसाब अलग रहने लाहे, कॉन्टेक्ट्स और रिलेशन भी अलग
हुए.
दोनों के पास अपने-अपने तर्क थे और दोनों ही इस बात को अच्छी तरह
जानते थे कि ये तर्क उन्हें कहीं नही ले जायेंगे. फिर भी हर तीसरे दिन घंटो बहस
होती थी और उसकी समाप्ति मंजरी के आँसू ही करते थे. अब स्नेह का स्थान संदेह ने ले
लिया था और तर्कों ने सद्भावना के रेशे-रेशे उधेड दिए थे.
अब मंजरी अपने ही घर में बहुत अकेली हो उठी थी और सबकुछ बड़ा वीरान
लगने लगा था. हर काम बोझ लगने लगा था. खली समय और भी बोझिल. वह घंटो किताब खोले
बैठी रहती थी, पर पंक्तियाँ केवल आँखों के नीचे से गुजरती थीं, मन उनसे अछूता ही
रहता था- कापियां देख रही हो या प्रूफ ! बिपिन से सम्बन्ध क्या गड़बड़ाया था, उसकी
समस्त इन्द्रियों के आपसी सम्बन्ध गड़बड़ा गये थे.
वह घर के सारे खिड़की-दरवाजे खुली रखने लगी थी, फिर भी लगता रहता था
कि साफ़ हवा के आभाव में घर की हवा धीरे-धीरे जहरीली होती जा रही है, और कोई है, जो
उसके देखते-देखते मरता जा रहा है. न वह उसे बचा सकती है और न ही निर्दयितापूर्वक
मार सकती है. यों भीतर-ही-भीतर वह तरह-तरह के संकल्प करती थी, पर उसने उन्हें कभी
विचारों से आगे नही बढ़ने दिया; क्योंकि घर में बहुत जल्दी ही एक तीसरा प्राणी
आनेवाला था. उसने उसके और अपने दुर्भाग्य को साथ-साथ ही कोसा, पर उसके बावजूद मन
में कहीं एक हल्की-सी आशा झाँकने लगी थी, शायद यह अनागत ही उनके बीच में कहीं सेतु
बन जाये.
पल भर के भीतर ही उसने अच्छी तरह जान लिया कि इस युग में आशा करना ही
मूर्खता है; क्यूँकी आज ज़िन्दगी का हर पहल कर स्थिति और हर सम्बन्ध एक समाधानहीन
समस्या होकर ही आता है, जिसे सुलझाया नही जा सकता, केवल भोग जा सकता है. जिसमे
आदमी निरंतर बिखरता और टूटता है, वह भी दो (२ ) साल तक बिखरी और टूटी थी. बिपिन मन
में कहीं हल्का-सा आश्वस्त महसूस करने लगा था कि मंजरी ने शायद उन सब को स्वीकार
कर लिया है, कि शायद अब वह कटेगी नही.
क्रमशः