Wednesday, 18 January 2017

" प्रेम " - part I

"ग्लास - -ज़ाम  सी छलकती हुई,मदमस्त झीलों की तरह शोख, रातरानी की बेलों सी मन को अंदर तक मोहपाश में बांधती हुई वो सागर सी गहरी आँखें ; जब भी उन्हें देखो तो लगता है जैसे अभी -अभी हवाओं का कोई सुर्ख झोंका किसी गुलाब की पंखुरियों से अठखेलियां करता हुआ गुजर गया हो..
जितने करीब से देखो उन्हें उतना ही उनमे डूब जाने को दिल करता है और उनमे प्यार की वो हल्की सी लुका -छिपी खेलती हुई झलक जब आँखों की पलकों को भी अपने गरम एहसासों  से बांध लेती हैं तो उनसे नज़रों को हटाकर दूर करना बेहद मुश्किल है.."
गोरे चेहरे पर होंठों की सुर्ख लाली से नज़रें हटाओ तो नज़रें जाने किस मोहपाश में बंधी हुयी उन काली आँखों से जा टकराती हैं लेकिन उस तकरार में तो कोई आवाज़ होती है और ही कोई एतराज़..

नज़रों से नज़रें मिलती हैं और नज़रों ही नज़रों में जाने कितने नज़ारे नज़रों में उतर आते हैं ... कई ख़्वाब आँखों के पलकों पर जन्म लेते हैं तो कई एहसास दिल की धड़कनो में। रंग तो सात ही होते हैं लेकिन उनसे जुड़े एहसास बदल जाते हैं , हर रंग पहले से ज्यादा खूबसूरत और अनूठा लगने लगता है. मौसम वही रहते हैं लेकिन फ़िज़ाओं का मिज़ाज़ जैसे बदल-सा जाता है. एक नयापन अचानक ही अपने आने का संकेत दे जाता है. इस एहसास को क्या कहते हैं ये तो ठीक ठीक मालूम नही है लेकिन कुछ तो है जो होता है..  या फिर ये जो "कुछ-कुछ होता है... " शायद इसे ही सभ्य भाषा में प्रेम कहते हैं ..