एक निगाह इधर भी ... भाग - २
आज आप को अपनी दास्ताँ सुनाती हूँ मै ... मेरी सुबह होती है सुबह ५:१२ की पनवेल-ठाणे लोकल की आवाज़ से ... जो प्रतिदिन अपने वक़्त से आती है
और हमारी आँखों के पलकों तले जो सपने सो रहे होते हैं उन्हें अपनी धड धड की आवाज़ से आगाह कर जाती है . मानो कह रही हो की ऐ नादाँ तू भी किन
ख्वाब्गाहो से दिल लगाये बैठा है....खोल अपनी आँखें और देख अपनी ज़िन्दगी की असलियत को... मेरी सची सहेलियां हैं ये ये गाड़ियां शायद तभी तो कहती हैं मुझसे ..
" यूँ बादलों को न देख ऐ खबर बदोश , तू न कुचल जाये कहीं ...."
मतलब मालूम नही है मुझे इन शब्दों का पर सोचती हूँ , कुछ भले की बात होगी मेरी . इन्ही एहसासों और मनमंथन के साथ सुबह होती है मेरी . और सुबह के बाद
रात कब और कैसे आ जाती है.. कहना मुसकिल है.... सरपट दौड़ती लोकल ट्रेनों से भी तेज़ भागती है मेरी ज़िन्दगी .. ५;१२ से शुरु होती है मेरी कहानी ...
५:३२ को आने वाली अगली लोकल के इंतज़ार के साथ . सही समझ रहे हैं आप, जाना है मुझे इसी लोकल से अपना और अपने साथ रह रहे लोगों का पेट भरने के वास्ते ..
इंतज़ार इतनी छोटी नही है साहब अभी तो मुझे ठाणे में फिर से प्लेटफार्म पर दौड़कर सी एस टी की लोकल पकडनी होगी ... दादर जो जाना है मुझे..
अगर देर हुई तो फूलों का गुच्छा , कलम की छोटी गठरी , बालों के सजावट वाली रबरें, किलीप , रंग-बिरंगी चूड़ियाँ भी तो खरीदनी हैं मुझे.
आप तो समझ ही गये होंगे कि मै भी कितनी शौक़ीन हूँ !!
इन सबका शौक न है मुझे , मै तो ये सब खरीद कर फिर से दादर से ठाणे वाली लोकल का इंतज़ार करती हूँ साहब... फर्क सिर्फ इतना है की अबके बार कहीं पहुँचने की जल्दी नही होती मुझको..
बस गाड़ी के आने का इंतज़ार होता है... और मन ही मन भगवन से दुआ करती हु की सबका मन और मिजाज़ कुशल मंगल हो. जो लोग भी घर से निकले वो खुश मिजाज़ हो..
आखिर येही लोग तो हैं जिनका मुझे बेशब्री से इंतज़ार है.. नही समझे ??
मै लोकल ट्रेन में सामान बेचती हूँ , अपनी इज्जत कमाने को . भीख नही मांगती मै , हाँ लोगों की मीनते करती हूँ मेरा सामान खरीद लेने को ..
कभी कुछ लोग खरीददार बन जाते हैं मेरे तो मै भी बड़े शान से अपनी भूख को आँखे दिखाती हुई हँस पड़ती हूँ ...
ये सिलसिला हर रोज़ , निरंतर चलता ही रहता है और मेरी ज़िन्दगी भी...
सुना है मैंने भी कहीं से ...पढ़े - लिखे कुछ लोग कहते हैं कि बाल मजदूरी गलत है ... लेकिन ये मजदूरी क्या है साहब ? और ये गलत कैसे है ?
ये समझ में नही आया मेरे .... जैसे आप लोग अपना पेट पलने के लिए दफ्तरों में जाते हैं, अपना काम करते हैं वैसे ही तो मै भी कुछ काम करती हूँ ..
मै ही क्यों मेरे जैसे और भी न जाने कितने बच्चे .. !!
मैंने तो ये भी सुना है साहब की जो बच्चे टी वी और फिल्मो में काम करते हैं उन्हें अवार्ड भी दिया जाता है... और लोग उनकी इज्ज़त भी करते हैं ...
इतना ही नही , उनके घर में तो बड़े - बड़े पढ़े - लिखे भी जाते हैं उ का कहते हैं ऑटोग्राफ लेने ...
तो हमारा काम गलत कैसे हो गया है ??
शायद इसलिए होता होगा कि हम बंगले में , फ्लैट में और अपार्टमेंट में नही रहते हैं न ,हमारे पास तो टूटी फूटी झोंपड़ी है . कभी कभी तो प्लेटफार्म पैर भी सो जाते हैं . पैसा भी नही है ..
जो कमाते हैं , जितना कमाते हैं सब रात तक में ख़तम हो जाता है... और उ का है न कि हमारे पास तो ऑटोग्राफ भी नही है लोगों को देने के लिए .
तभी तो सब हमे गन्दी निगाहों से देखते हैं ... हमारी मेहनत को नही हमारे मैले गंदे फटे पुराने कपड़ो को देखते हैं ....
क्या कहें आखिर निगाहों में फर्क तो होता है ... और निगाहों से निगाहों की बात समझने वाले ... हम से कभी निगाहे मिलते ही नही , जिससे कि हम अपनी बात उनको बता सके या समझा सकें...
फ़िलहाल तो मै भी उस एक निगाह की इनायत के इंतज़ार में हु जो मेरी नज़र से मुझे देख सके और लोगों की नजरो को उसका मतलब समझा दे..
तबतक के लिए सिर्फ इतना कहूँगी :-
" आँखों पर पलकों का बोझ नही होता ,
दर्द का रिश्ता अपनी आन नही होता ...
बस्ती का ऐहसास दिलो को चुभता है,
सन्नाटा जब सारी रात नही होता ..
बन जाते हैं लम्हे भी कितने संगीन
वक़्त कभी जब अपना बोझ नही ढोता...
रिश्ते नाते टूटे फूटे लगे हैं,
जब भी अपना साया साथ नही होता ..
दिल को उधार नही मिलता जब तक
आँखों का पथरीला दर्द नही रोता ...
आँखों का पथरीला दर्द नही रोता ... "
अर्पना शर्मा : की कलम से
आज आप को अपनी दास्ताँ सुनाती हूँ मै ... मेरी सुबह होती है सुबह ५:१२ की पनवेल-ठाणे लोकल की आवाज़ से ... जो प्रतिदिन अपने वक़्त से आती है
और हमारी आँखों के पलकों तले जो सपने सो रहे होते हैं उन्हें अपनी धड धड की आवाज़ से आगाह कर जाती है . मानो कह रही हो की ऐ नादाँ तू भी किन
ख्वाब्गाहो से दिल लगाये बैठा है....खोल अपनी आँखें और देख अपनी ज़िन्दगी की असलियत को... मेरी सची सहेलियां हैं ये ये गाड़ियां शायद तभी तो कहती हैं मुझसे ..
" यूँ बादलों को न देख ऐ खबर बदोश , तू न कुचल जाये कहीं ...."
मतलब मालूम नही है मुझे इन शब्दों का पर सोचती हूँ , कुछ भले की बात होगी मेरी . इन्ही एहसासों और मनमंथन के साथ सुबह होती है मेरी . और सुबह के बाद
रात कब और कैसे आ जाती है.. कहना मुसकिल है.... सरपट दौड़ती लोकल ट्रेनों से भी तेज़ भागती है मेरी ज़िन्दगी .. ५;१२ से शुरु होती है मेरी कहानी ...
५:३२ को आने वाली अगली लोकल के इंतज़ार के साथ . सही समझ रहे हैं आप, जाना है मुझे इसी लोकल से अपना और अपने साथ रह रहे लोगों का पेट भरने के वास्ते ..
इंतज़ार इतनी छोटी नही है साहब अभी तो मुझे ठाणे में फिर से प्लेटफार्म पर दौड़कर सी एस टी की लोकल पकडनी होगी ... दादर जो जाना है मुझे..
अगर देर हुई तो फूलों का गुच्छा , कलम की छोटी गठरी , बालों के सजावट वाली रबरें, किलीप , रंग-बिरंगी चूड़ियाँ भी तो खरीदनी हैं मुझे.
आप तो समझ ही गये होंगे कि मै भी कितनी शौक़ीन हूँ !!
इन सबका शौक न है मुझे , मै तो ये सब खरीद कर फिर से दादर से ठाणे वाली लोकल का इंतज़ार करती हूँ साहब... फर्क सिर्फ इतना है की अबके बार कहीं पहुँचने की जल्दी नही होती मुझको..
बस गाड़ी के आने का इंतज़ार होता है... और मन ही मन भगवन से दुआ करती हु की सबका मन और मिजाज़ कुशल मंगल हो. जो लोग भी घर से निकले वो खुश मिजाज़ हो..
आखिर येही लोग तो हैं जिनका मुझे बेशब्री से इंतज़ार है.. नही समझे ??
मै लोकल ट्रेन में सामान बेचती हूँ , अपनी इज्जत कमाने को . भीख नही मांगती मै , हाँ लोगों की मीनते करती हूँ मेरा सामान खरीद लेने को ..
कभी कुछ लोग खरीददार बन जाते हैं मेरे तो मै भी बड़े शान से अपनी भूख को आँखे दिखाती हुई हँस पड़ती हूँ ...
ये सिलसिला हर रोज़ , निरंतर चलता ही रहता है और मेरी ज़िन्दगी भी...
सुना है मैंने भी कहीं से ...पढ़े - लिखे कुछ लोग कहते हैं कि बाल मजदूरी गलत है ... लेकिन ये मजदूरी क्या है साहब ? और ये गलत कैसे है ?
ये समझ में नही आया मेरे .... जैसे आप लोग अपना पेट पलने के लिए दफ्तरों में जाते हैं, अपना काम करते हैं वैसे ही तो मै भी कुछ काम करती हूँ ..
मै ही क्यों मेरे जैसे और भी न जाने कितने बच्चे .. !!
मैंने तो ये भी सुना है साहब की जो बच्चे टी वी और फिल्मो में काम करते हैं उन्हें अवार्ड भी दिया जाता है... और लोग उनकी इज्ज़त भी करते हैं ...
इतना ही नही , उनके घर में तो बड़े - बड़े पढ़े - लिखे भी जाते हैं उ का कहते हैं ऑटोग्राफ लेने ...
तो हमारा काम गलत कैसे हो गया है ??
शायद इसलिए होता होगा कि हम बंगले में , फ्लैट में और अपार्टमेंट में नही रहते हैं न ,हमारे पास तो टूटी फूटी झोंपड़ी है . कभी कभी तो प्लेटफार्म पैर भी सो जाते हैं . पैसा भी नही है ..
जो कमाते हैं , जितना कमाते हैं सब रात तक में ख़तम हो जाता है... और उ का है न कि हमारे पास तो ऑटोग्राफ भी नही है लोगों को देने के लिए .
तभी तो सब हमे गन्दी निगाहों से देखते हैं ... हमारी मेहनत को नही हमारे मैले गंदे फटे पुराने कपड़ो को देखते हैं ....
क्या कहें आखिर निगाहों में फर्क तो होता है ... और निगाहों से निगाहों की बात समझने वाले ... हम से कभी निगाहे मिलते ही नही , जिससे कि हम अपनी बात उनको बता सके या समझा सकें...
फ़िलहाल तो मै भी उस एक निगाह की इनायत के इंतज़ार में हु जो मेरी नज़र से मुझे देख सके और लोगों की नजरो को उसका मतलब समझा दे..
तबतक के लिए सिर्फ इतना कहूँगी :-
" आँखों पर पलकों का बोझ नही होता ,
दर्द का रिश्ता अपनी आन नही होता ...
बस्ती का ऐहसास दिलो को चुभता है,
सन्नाटा जब सारी रात नही होता ..
बन जाते हैं लम्हे भी कितने संगीन
वक़्त कभी जब अपना बोझ नही ढोता...
रिश्ते नाते टूटे फूटे लगे हैं,
जब भी अपना साया साथ नही होता ..
दिल को उधार नही मिलता जब तक
आँखों का पथरीला दर्द नही रोता ...
आँखों का पथरीला दर्द नही रोता ... "
अर्पना शर्मा : की कलम से