Tuesday, 22 November 2016

नवम्बर की धूप

आज जब भरी दोपहरी में कुछ देर के लिए अपने घर के बाहर निकली तो ऐसा महसूस हुआ जैसे ज्येष्ठ (मई- जून) की  गर्मी से तपती जमीं और अंगारे बरसाता आसमान के बीचो-बीच मैं अकेली ही हूँ. ऐसी तपती गर्मी और हवाओं का वो अंगारों से लबालब रुख बदन को झुलसाते हुए से प्रतीत हुए. मन तो मनो हवाओं के थापेरों से पहले ही घायल होकर कहीं बेसुध हुआ पड़ा रहा. १० मिनिट के समय में ही मनो एक युग की गर्मी का एहसास हो गया हो... जैसे-तैसे अपने कदमो की रफ़्तार को तेज़ करने की कोशिश करते हुए अपने पांचो इंदियों को एकाग्र किया और इस लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने लगी कि जल्द-से-जल्द अपनी मंजिल तक पहुँच जाऊं लेकिन पैरों की रफ़्तार भी गर्मी के मार से अछूती नही रही. पैर भी थके-मांदे आगे बढ़ते रहे. सड़कों पैर अन्धाधुन दौड़ती गाड़ियों के बीच मैं भी सरपट भागती चली जा रही थी इस उम्मीद में शायद कहीं कोई पेड़  की छाया मिल जाये लेकिन दूर-दूर तक पेड़ तो क्या कोई पौधा भी नज़र ना आया. मन ही मन उदास- हतास हो कर यह सोच रही थी अगर २०१६ में स्थिति इतनी भयानक है तो अगले १५-२० बरसों में स्थिति कितनी भयावह होगी. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि धर्मवीर भारती जी की  लिखी हुई ये कवितानवम्बर की धूप आज ही एक ख्वाब, एक कल्पना मालूम पड़ रही है तो आगे की  आने वाली पीढियां तो इसे स्वप्न मात्र भी शायद ही मानेंगी..

यही सोच कर उनकी कविता  की पंक्तियों को याद करने लगी और कहीं- कहीं शायद उनके वर्णन में और आज की सचाई में तुलना करने लगी.. एक गहन और अमान्य-सा फर्क समझ आने लगा.. उनकी कविता की एक- एक लाइन एक अलग दुनिया की कल्पना सी लग रही थी. उस खुबसूरत सी दुनिया और हमारा बेतरतीब सा संसार एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं, इसमें कोई संदेह नही कि उनकी दुनिया बेहद खुबसूरत और चंचल रही होगी बिलकुल वैसी ही जैसे किसी नई नवेली दुल्हन के हनथो में खनकती चूड़ियाँ, नवम्बर की धूप भी उतनी ही शोख रही होंगी जितनी दुल्हन के माथे से भीगी केशों कि लटकती हुई लटें या फिर शायद उतनी ही नाज़ुक रहती होंगी जितनी कि एक कमसिन दुल्हन. इन्ही ख्यालों में उलझी-सुलझी मैं अपनी मंजिल की ओर बढ़ती रही लेकिन अब पैरों में एक अलग सी स्फूर्ति थी और माथे पर सिकन की जगह उस तिल्तिलाती गर्मी में भी चमक. आँखे झुलसी जातीं थी धूप  की  आग से लेकिन उनमे जो पानी उभर आया था वो सुखा नही .. और मन उलासित हो नवम्बर की चिलचिलाती धूप  से दूरभारती जीके नवम्बर की धूप  में विचरण करने में लीन हो गया ... आप में से बहुत से लोग शायद भारती जी की कविता से अनजान होंगे इसलिए उनकी कविता को यहाँ अंकित कर रही हूँ ....

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की !

आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी 
इस मन की उँगली पर 
कस जाये और फिर कसी ही रहे 
नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी 
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे 

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख 
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की 
उस आँगन में भी उतरी होगी 
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी 
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट 
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में 

आज इस वेला में 
दर्द में मुझको 
और दोपहर ने तुमको 
तनिक और भी पका दिया 
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा 
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला 
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई 
रेल के किनारे की पगडण्डी 
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़ 
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी...
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