Thursday, 3 May 2018

पानीपूरी


दिल्ली की गर्मी और भीड़, दोनों ही इन्सान को थका देने के लिए काफी हैं. वो दिन भी कुछ ऐसा ही था. सुबह भरपेट नास्ता करने  के बाद दिल्ली दर्शन की ईक्षा जागृत हुई थी. अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन से निवास स्थान नजदीक होने के कारण वहीँ से मेट्रो पर सफ़र की शुरुआत हुयी. 

कनौट प्लेस, जंतर-मंतर, गुरुद्वारा बंगला साहिब और आस-पास के इलाकों का भ्रमण करने के पश्चात तन और मन दोनों ही थकान से चूर-चूर हुए जाते थे. अपने अन्दर एक पतली-सी उर्जा की डोर को समेटते हुए घर-वापसी को अग्रसर हुए. वापस अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन .यहाँ से घर की दुरी कुछ खास नही थी लेकिन आज उस छोटी सी दूरी को भी तय करना मुश्किल हो रहा था. 

रात के १०-१०:१५ बजे का समय रहा होगा. घर पहुँचने की जल्दी तो थी लेकिन कदम न उठते थे. गलियां भी भरसक सुनसान हो गयी थीं, दुकाने बंद हो गयी थी, फल-सब्जी मंडी में भी अँधेरा छा गया था. एक तो थकान दूसरे भूख ने भी अब उधम मचाना प्रारंभ कर दिया था. उन गलियों में भी कहीं कुछ नज़र न आता था. साथ चल रहे और भी २-३ जोड़ी कदमों का साथ था. लेकिन न तो आपस में बात करने की हिम्मत हो रही थी और न ही उन अँधेरी राहों में रुक कर विश्राम करने की हिम्मत. तभी सामने गली में कुछ १००-१५० मीटर की दूरी पर एक छोटा सा ठेला और उसपर लगी २ वाट की लेड बल्ब नज़र आई. तनिक आँखों पर जोर डाला तो वह ठेला “पानीपूरी” का नज़र आया. 

ऐसा लगा न जाने कहाँ से पैरों में जान आ गयी, थकान छू-मंतर हो गयी और मन में एक आशा की किरण जलने लगी. पैरों में रफ़्तार खुद ही आ गयी थी, १५० मि० की वह दूरी तय करने में मुश्किल से आधे मिनट का समय लगा होगा. चेहरे पर मुस्कान वापस आ गयी थी और घर जाने की जल्दी से कहीं ज्यादा जल्दी अब पानीपूरी को अपने मुंह में डालने की थी. ये पानीपूरी वाला हमे साक्षात् “माँ अन्नपूर्णा” का भेजा हुआ कोई फरिस्ता नज़र आ रहा था.

हमने बड़ी उम्मीद से कहा : भैया पानीपूरी खिलाना. लेकिन उसने बड़ी ही सहजता से कहा : सामान तो सब ख़तम हो गये हैं, थोड़े-बहुत बचे-खुचे हैं. मैं तो अपनी दुकान समेट रहा था.

लेकिन हमने आग्रह करते हुए कहा: जो बचा है वही खिला दो, बड़ी भूख लगी है.

हमारे उतरे हुए चेहरे देख कर उसने अनुमान लगा लिया था कि ये जो चमक आई थी हमारे चेहरे पर वो मात्र पानीपूरी की आशा में, हम तो थक कर निढाल होने वाले थे. होठ सुख चुके थे, आँखे थकी हुयी, कदम लड़खड़ा रहे थे.

उसने थोडा रुक कर कहा : रुकिए, खिलाता हूँ. और आलू का बचा हुआ टुकड़ा ले कर उसमे मसाले और एक छोटा-सा प्याज उसमे काटते हुए बोला कि मेरे पास सैंडविच है आप खा लो.

हमने मना कर दिया और ४-५ पानीपूरी खा कर घर की ओर चल पड़े. अब थकन जा चुकी थी, पानीपूरी के स्वाद ने मन में एक स्फूर्ति भर दी थी. अब पैरों में भी गति आ गयी थी और मन में घर पर बने “आलू-पराठे” का ख्याल आने लगा था.

आज महसूस हो रहा था जैसे हमने पानीपूरी नही जैसे कोई शक्ति की दवाई खा ली हो. जिसके खाते ही पूरे शरीर में नई उर्जा का संचार हो रहा था.
                                                                                                             
                                                                                                                    --  अर्पणा शर्मा

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