Wednesday, 28 December 2016

अलविदा २०१६ --- भाग-१


कुछ ही दिनों में या महज़ ८७ घंटों में २०१६ भी ख़त्म हो जायेगा. एक और साल बीता जा रहा है, इस एक साल में अनेकों कहानियां सुनी हमने, कई बयार भी चले, हर कदम पर हर दिशा में एक लहर सी नज़र आई. कभी देशहित की, तो कभी कुछेक लोगो के स्वार्थ की, कभी स्वच्छता को ज़मीं पर उतार लाने की तो कभी जन कल्याण की. और भी बहुत से किस्से-कहानियां ... वक़्त जब बीतता है तो उसकी कदर समझ में आती है. बहुत से लोग खुश होंगे इस साल के बीतने से तो कुछ लोग उदास भी.
वो कहते हैं ना “बीतता तो वक्त है, लेकिन उसके साथ ख़त्म हम होते हैं” और ये कहानी किसी एक इन्सान की नही होती, ये तो पूरा सिस्टम है जो चलता ही रहता है... साल-दर-साल बीतते जाते हैं और लोग-बाग़  उसके साथ ही बनते-बिगड़ते रहते हैं.. ऐसा ही कुछ इस साल २०१६ में भी हुआ और आने वाले साल २०१७ में भी बहुत सारी प्रत्याशित- अप्रत्याशित कहानियां सुनने-सुनाने को मिलेंगी... लेकिन हमे आने वाले वक़्त का खुले मन से स्वागत करना होगा. वक़्त का वो पल जब २०१६ और २०१७ का आलिंगन होगा, वह वक़्त सबसे ज्यादा खुबसूरत और रमणीय होगा क्योंकि उस पल में हर इन्सान का भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ गले मिलेंगे....
जैसा कि मैंने कहा “बीतता तो वक्त है, लेकिन उसके साथ ख़त्म हम होते हैं”.आप सब से मैं सिर्फ इतना ही कहूँगी, जाते हुए वक़्त को हँस कर विदा कीजिये और आने वाले वक़्त का मुस्कुरा कर आलिंगन..

  “अभी तो कई जीत बाकी हैं,
   कई हार बाकी है..
   अभी तो ज़िन्दगी का सार बाकी है
   यहाँ से चलें हैं नई मंजिल के लिए,
   यह तो महज़ एक पन्ना था
   अभी तो पूरी किताब बाकी है..”


Thursday, 22 December 2016

ख़ामोशी -II

उनकी आवाज़ में मुझे एक दर्द से ज्यादा अकेलेपन का आभास हुआ. मैं वहीँ खड़ी कुछ सोचने लगी, तभी मुझे उनकी आवाज़ सुनाई दी “आप जॉब करते हो बेटा ?” मैंने भी जवाब में “जी” कहा और उनके आगे कुछ बोलने का इंतज़ार करने लगी.

कुछ देर यूँ ही सनाट्टा छाया रहा और उसके बाद एक बहुत ही मीठी कानों में रस भरने वाली लेकिन एकाकीपूर्ण आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, मैं किसी अबोध बच्चे की तरह उस आवाज़ की मिठास और दर्द में अंतर समझने कि कोशिश कर रही थी.. तभी वह आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी : “ परिवार के साथ रहते हो यहाँ ?”

मैंने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया : “जी नहीं, मैं यहाँ जॉब के लिए रहती हूँ”

मेरे इस उत्तर का प्रतिउत्तर मुझे उनके मुखाभाव से मिला. उनके चेहरे पर एक उदासीन और मार्मिक हँसी उभरती हुई नज़र आयी. धीरे-धीरे वही उदासीनता उनकी आँखों में उतर गयी और लब फिर से सिहर कर खामोश हो गये.

मैंने ख़ामोशी को तोड़ने के लिए उनसे पूछ लिया : “ आप लोग अपनी फॅमिली के साथ यहाँ रहते हैं ?”

मेरे सवाल के लिए शायद वो तैयार नही थे या फिर जवाब देना सहज नही था. उन दोनों ने एक दुसरे की आँखों में देखा और फिर मेरी ओर देख कर एक फीकी मुस्कान के साथ कहा: “ नहीं बेटा, हम दोनों यहाँ एक साथ रहते हैं और बाकी का परिवार यही दो स्टेशन आगे रहता है .” इतना कहते कहते उनके आँखों से आसूँ की एक पटली सी धार ढुलकते हुए उनके गलों पर आ गयी.

आसूँ देख कर पहले तो मैं ठिठक गयी, मन में एक डर भी आ गया कि कहीं अनजाने में ही मैंने उनकी किसी दुखती हुई नस पर हाथ तो नही रख दिया ??...

मैं अपने कशमकश में उलझी हुई थी तभी उन्होंने आगे कहना शुरु किया : “ २ बच्चे हैं मेरे. दोनों की शादी हो गयी अब उनके भी छोटे- छोटे बच्चे हैं. बहुत प्यारे हैं वो. वो हमारे साथ नही रहते, घर छोटा पड़ जाता है परिवार बड़ा है.” इतना कह कर उन्होंने एक गहरी साँस ली, फिर बोल पड़े “ यही जॉब करते हैं दोनों, अपना फ्लैट ले रखा है पास में ही है. वहाँ से उनका ऑफिस नजदीक है, सहूलियत होती है.”
मैंने चुप चाप सुन रही थी उन्हें... और अँधेरे में भी उस दूर खड़े पेड़ की टहनियों को ढूंढ रही थी.. शायद अब उनका यूँ उस तरह पेड़ की ओर टकटकी लगा कर देखना थोडा-थोड़ा समझ में आने लगा था मुझे.. मैंने यूँ ही धीमी सी आवाज़ में पूछा : “आप उनके साथ नही रहते ?” और पूछने के साथ ही नज़रे नीची कर उनके जवाब का इन्तेज़ार करने लगी.
उनके मुँह से एक उपेछित सी हँसी निकली और उसके साथ ही जवाब भी और एक सवाल भी ...:: “ नहीं बेटा, ‘ २ बी एच के ’ है न जगह की कमी है.. और वहाँ जाकर उन्हें परेशान नही करना चाहते. आजकल बच्चों के पास वक़्त भी कहाँ है? उनके अपने काम हैं अपना जीवन है... उसमे हमारे लिए न तो जगह बच पायी है और नहीं समय ... “ इस वाक्य के साथ ही उनकी जुबान फिर से चुप हो गयी ... लेकिन इस बार की ख़ामोशी ने वहाँ की हवाओं में एक कुम्हालाहट, एक बेचैनी ला दी थी. मैं न तो कुछ बोल पायी और नहीं अपने अन्दर इतना साहस महसूस कर पायी कि अपनी नज़रों को उठाकर उनकी तरफ देख पाऊं. बस ज़मीन की तरफ नज़रें किये सोचती रही.
क्या सोच रही थी ये तो ठीक ठीक याद नही , लेकिन मन के पटल पर वो सूखा पेड़ जिसके पत्ते झड़ चुके थे और उसकी हरियाली ने शायद दम तोड़ दिया था लेकिन जड़ों की मजबूत पकड़ अभी भी मिट्टी को अपने जी-जान से पकडे खड़ी थी उभर आया. 
मेरा मन अभी भी अपने ख्यालों में ही था जब फिर से उनकी आवाज़ आई : रात काफी हो गयी, अब चलना चाहिए. इतना कहकर उन्होंने एक- दूसरे का हाथ थमा और हलके क़दमों के साथ अपना भारी मन लेकर चल पड़े..

मैंने भी उन्हें गुड नाईट बोला और आहिस्ता-आहिस्ता अपने घर की ओर चल पड़ी,  ...                                                               

                                                                     

Saturday, 17 December 2016

Aye zindagi kbhi hasati kbhi rulati kyu hai,
Ana hi h to furst me aa roj ati jati kyu h.
Tera ana jana ek anjana sa dard jagata hai ,mere khababo k mahal ko tu ret me u milati kyu hai,
Na mujhe kabhi teri chah thi,na tujhse kabhi inkar kiya,
aj tu mere sahil ko tufan me milati kyu hai !!!

Friday, 9 December 2016

ख़ामोशी

खुले आकाश के नीचे दूरों तक फैली हुई कुछ हरी और सफ़ेद घासों की मिली-जुली चादर. दूर में खड़ा वो सुखा पेड़ और उसपर बैठे परिंदे. शाम की श्यामल धूप और सामने ही एक गेंद को लात मारते कुछ नन्हे- मुन्हे बच्चे. निगाहें इधर-उधर घूम-फिरकर वापस वहीँ आ टिकीं उस सूखे पेड़ पर जिसके पत्ते झड़ चुके थे और उसकी हरियाली ने शायद दम तोड़ दिया था लेकिन जड़ों की मजबूत पकड़ अभी भी मिट्टी को अपने जी-जान से पकडे खड़ी थी. शायद उम्मीद थी उनमे पत्तों के वापस आने की ; मुद्दतों बाद ही सही. उस पेड़ को एकटक निहारती वो बूढी आँखें अपनी नमी खो चुकी थीं. ऐसा लगता था मानो एक ज़माने से अपने पानी को सूखता हुआ देखती आई हों. उन आँखों में एक ठहराव था और अपलक देखती नज़रों में शायद कुछ बूँदें उभर कर अनायाश ही गेशुयों से ढलकते हुए उनके उबर-खाबर लेकिन मर्मस्पर्शी सफ़ेद गालों पर एक तिरछी रेखा में बहने लगे.
थोड़ी देर तक मैं उस बुजुर्ग जोड़े को देखती रही. उन बूढी आँखों से जब कुछ देर बाद आसुओं के बहाब में थोड़ी स्थिरता और गतिहीनता आई तो उनमे कुछ अलग नज़र आया, दोनों ने आहिस्ता से अपने-अपने गर्दनों को हिलाया और एक-दूसरे को आँखों ही आँखों में कुछ कह गए. उनके चेहरे पर एक बेबशी उभर आई और होंठ के कपोले हिल कर फिर से खामोश हो गए बिना कुछ कहे शायद उन्होंने सब कुछ कह दिया हो. धीरे-धीरे एक हलचल सी महसूस हुई उनके बीच. वो बुजुर्ग शायद दम्पति थे, उनके हाथ हिले और आहिस्ता से एक दुसरे को पकड़ कर शांत हो गये. लगा मनो एक शांति के बाद जोर का तूफ़ान उठा हो और फिर उस तूफ़ान के थमने के बाद वही ख़ामोशी चारो ओर पसर गयी हो लेकिन दोनों खामोशियाँ भी एक-दुसरे से बेहद अलग थी और उसका प्रभाव भी.
अचानक मुझे अहसाह हुआ जैसे एक लम्बी बेहोशी के बाद मुझे होश आया हो और मैंने अपनी नज़रों को उनके चेहरे से हटाकर आस-पास के माहौल का ब्यौरा किया. शाम ढलने को आ गयी थी सूर्य अपनी किरणों को, अपनी लाली को समेटता हुआ नज़र आया और आस-पास खेलते हुए बच्चे भी घर वापसी की तैयारी में लीन थे. मैंने अपनी नज़रों को एक सिरे से दुसरे सिरे तक दौड़ाया और फिर मेरी नज़रें उस बुजुर्ग जोड़े पर जा टिकीं जो अभी भी वहाँ वैसे ही बैठे थे और ढलती शाम के उभरते अँधेरे में भी उस पेड़ को निहार रहे थे... कुछ देर मैं भी उस पेड़ को देखने लगी शायद ये सोच कर कि उनके इस तरह अपलक उस पेड़ को देखने का कारण समझ पाऊं मैं लेकिन मेरी नज़रें इतनी पारखी नही हैं. मुझे जो नज़र आया वो एक बिना पत्तों के रुख-सुखा पेड़ था, जो अभी भी अपनी जड़ों से मिटटी की पकड़ बनाये हुआ था. रहा नही गया मुझसे, तो मैं यूँ ही धीरे क़दमों से उनकी ओर बढ़ चली.  पास जाकर देखा तो
“ उनके हाथ एक दुसरे को कसकर थामे थे जैसे दिलासा दे रहे हों ... घबराना मत, मैं हूँ न तुम्हारे साथ ... और आँखें पेड़ पर कहीं टिकीं हुई.. उनके लबों पर ख़ामोशी पसरी हुई थी लेकिन दिल में शायद कोई भूचाल उठा था ...”
मुझे एक बहुत ही अशांत और मन को बेचैन कर देने वाली ख़ामोशी का अहसाह हुआ वहाँ. बहुत ही सकुचाये मन से और अपने भीतर एक साहस बटोरते हुए मैंने एक धीमी आवाज़ दी उन्हें “अंकल आप लोग ठीक हैं. एनी प्रॉब्लम ?” उन्होंने अपनी नज़रें उठाकर मेरी तरफ देखा और एक बेमानी सी हँसी अपने होठों पर ला कर मुझे एक मद्धिम सी आवाज़ में जवाब दिया “ यस, वी आर फाइन.”
उनकी आवाज़ में मुझे एक दर्द से ज्यादा अकेलेपन का आभास हुआ. मैं वहीँ खड़ी कुछ सोचने लगी, तभी मुझे उनकी आवाज़ सुनाई दी “आप जॉब करते हो बेटा ?” मैंने भी जवाब में “जी” कहा और उनके आगे कुछ बोलने का इंतज़ार करने लगी.
                                                            
                                                                    To be continue..

Thursday, 8 December 2016

Love is in the Air...





ये शाम दीवानी भी ढल जाएगी
तुम राह-ए-उल्फत में दिल को लगाकर तो देखो..

मिजाज़-ए-मौसम भी बदल जायेगा
कभी आशिक़ी में उतरकर जो देखो..

ये शाम दीवानी भी ढल जाएगी
तुम राह-ए-उल्फत पर चलकर तो देखो..

जो रंग है बिखरे इन फिजाओं के
कभी तुम भी उनसे दिल लगा कर तो देखो...

कि बदल जायेगा हाल-ए-दिल तेरा भी
कभी आशिकी में उतरकर तो देखो..

भूल जाओगे तुम भी यक़ीनन
अपने हर दर्द को,
कभी किसी से मुहब्बत कर के तो देखो..

हरेक लम्हा, हरेक पल भी दिल में उतर जायेगा
किसी को दिल में बिठा कर तो देखो..

ये शाम दीवानी भी ढल जाएगी
तुम राह-ए-उल्फत में दिल को लगाकर तो देखो..

मिजाज़-ए-मौसम भी बदल जायेगा

एक बार दरिया-ए-इश्क में उतर कर तो देखो..

                                                                                                                                           Arpana Sharma

Wednesday, 30 November 2016

सफ़र

वक़्त जितनी तेज़ी से बदलता है उतनी ही तेज़ी से उसके साथ चलने वाले लोग भी भागे चले जाते हैं.. पता ही नही चलता कि कल जिनसे हाथ मिलाया था उनसे ही गले मिलेंगे कभी यूँ इस कदर. बस फर्क इतना होगा की कल हमारे साथ की, हमारे सफ़र की शुरुआत हुयी थी और आज हमारे सफ़र में उनका रास्ता ही ख़त्म होने को आ गया. सपना- सा लगता है जब कभी रुक कर, कुछ पल के लिए थम कर उन बीते लम्हों को देखती हूँ. हाँ, जैसे कल की ही तो बात है २० नवम्बर,२०१५  को एक इंटरव्यू के सिलसिले में आर.सी.पी (रिलायंस कॉर्पोरेट आईटी पार्क) में कदम रखा था मैंने और वहां उस अंजान सी जगह में भी मुझे कोई अपना मिल गया, एक ऐसा अपना जिसने पहले दिन ही मुझे मेरी मंजिल की तरफ बढ़ने का रास्ता दिखाया... “प्रीती परब“ और तब से ही अपनी दोस्ती हो गयी. सफ़र की शुरुआत हुई और पहला दरवाज़ा जो खुला तो कुछ कदम और हमारे साथ मिल गये ... “ शलाका पेद्नेकर ” , “नीता राज” और “स्नेहा चौहान”. इन हाथों ने जिस प्यार से हमारे हाथ को थामा उस सफ़र में उसका शायद ही मैं कोई डेफिनिशन दे पाऊं. एक परिवार मिला मुझे. गये १ साल में हमारे रिश्ते और भी गहरे होते चले गये, हर जरुरत में, ख़ुशी में, फेस्टिवल में या फिर जब मन उदास हो जाये ये चेहरे साथ नज़र आये. हाँ जैसे की अक्सर होता है, कोई दिल के ज्यादा करीब होता है तो कुछ लोगो से रिश्ते एक हद तक रहते हैं.. यहाँ भी कुछ ऐसा ही है... बीतते वक़्त के साथ और भी कई लोग इस सफ़र में साथ जुड़ गये और कुछ लोगो की राहें अलग भी हो गई. किस-किस का नाम लूं “हर्षदा”, “योगेश”, “सचिन भोसले“, “ मिलाप ” , “साईं” , “भूषण” , “किशोर”, “कमलाकांत”, “मुकुंद”, “सजल” ये नाम भी हमारे सफर के सागिर्द हैं और भी कई नाम हैं, सबको लिखना संभव नही है..  

आज ३० नवम्बर,२०१६ को भी जब मैं बैठकर ये सबकुछ यहाँ लिख रही हूँ तो हममे से ही कोई उन बीते लम्हों को बड़े ही नाज़ुक हाथों से उलट-पलट रहा होगा या फिर होगी. कहीं न कहीं उन बीते लम्हों की एक एक याद को सहेजने में व्यस्त. उसके लिए ये साथ भरा सफ़र, जिनमे प्यार भी है, अपनापन भी और कुछ गिले –सिकवे भी , ख़त्म होने को आ गया. १-२ दिन बाद हमारा ये काफिला तो आगे बढेगा लेकिन वो शक्श हमारे जत्थे का हिस्सा नही होगा. सब कुछ वहां वैसे ही नज़र आएगा बस एक खालीपन सा उसमे शामिल हो जायेगा ....

            “ वही पुराने किस्से होंगे, होंगी वही कहानियां
             बस सिमटा होगा कोई शक्श मन ही मन
             और यादों में भी होंगी कई राबनियाँ ...”

“ स्नेहा चौहान “ हमारे सफ़र से तो अलग होने जा रही हैं लेकिन जब भी इस सफ़र की बात होगी वो सबकी बातों में होगी. कल को सब उनको टाटा-बाय-बाय तो बोल देंगे लेकिन सिर्फ ऑफिशियली , दोस्ती कभी ख़त्म नही होती और न ही दोस्तों से जुडी बातें कोई भूल पाता है...
“ स्नेहा “ ये हो सकता है की कल जब तुम्हे बाय बोलने को लब खुले तो और कुछ बोल न पाएंगे हम. क्योकि जब एक बेहतरीन सफ़र से कोई मुसाफिर अलग होकर अपनी राह पकड़ता है तो वो राह और भी ज्यादा सुहाना होता है... साथ चलने वालों के लब तो खामोश होते हैं लेकिन नज़रें बहुत कुछ कह जाती हैं जिन्हें न तो बोलना आसान होता है और नहीं सुन पाना. कल को अगर तुम्हे बिदाई देते हुए हम खामोश हो जाएँ तो समझ लेना की हमारे दिल की दुआएं तुम्हारे साथ हैं... अपना ये सफ़र ख़त्म हुआ है.. राहें अभी भी बाकी हैं.... जब भी दिल से आवाज़ दोगी भले ही हमारी आवाज़ तुम तक न पहुँच पाए, लेकिन साथ हमेशा रहेगा तुम्हारे नये सफ़र में भी...
सारे जज्बातों को बताना पॉसिबल नही है इसलिए बस इतना ही कहूँगी :---

 “ कहूँ तुम्हें तो क्या कहूँ ..
    कुछ समझ में आता ही नहीं ..
   जब भी मिलती हैं तुमसे नज़रे
   दिल खुद से पूछता है..
    तुमसे कोई रिश्ता तो नही ??
    ना जाने क्यूँ ! आ जाती है ..
    होठों पे मुस्कराहट...
    जब भी देखती हूँ तुम्हे ...
    वैसे तो कोई खास रिश्ता नही ..
    फिर भी जाने क्यूँ चाहते है तुम्हें..
     ज्यादा मैं क्या बताऊँ  ??
     वैसे तो बहुत कुछ है बताने को..
       लेकिन शब्द ही मिलते नहीं..
       सुना है “मंजिले “ जुदा होती हैं..
       राहें तो वहीँ पुराणी रह जाती हैं...
        चाहूँगी हमेशा कि तुम यूँ ही ,
            मुस्कुराते रहना ..
        हँसते हुए तुम्हे देखने की चाहत है ...
        ये “चाहत” कुछ ज्यादा तो नहीं !!! ” 

Wish you a very happy journey ahead SNEHA …. May God bless you ever…

Tuesday, 29 November 2016

वादा करो ...

Just a feeling of love in weather of Mumbai.... a promise of dedication ....

खुशबूओं की तरह मेरी हर साँस में
प्यार अपना बसाने का वादा करो,
रंग जितनी तुम्हारी मुहब्बत के हैं
मेरे दिल में सजाने का वादा करो .

है तुम्हारी वफाओं पर मुझको यकीं
फिर भी दिल चाहता है ऐ दिलनशी,
यूँ ही मेरी तसल्ली की खातिर जरा,
मुझको अपना बनाने का वादा करो.

जब मुहब्बत का इकरार करते हो तुम,
धडकनों में नया रंग भरते हो तुम,
वादे कर चुके हो मगर आज फिर,
मुझको अपना बनाने का वादा करो.

सिर्फ़ लफ़्ज़ों से इकरार होता नहीं,
इक ज़ानिब से ही प्यार होता है.
मैं तुम्हे याद रखने की खाऊं कसम,
तुम मुझको ना भूलने का वादा करो.

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Monday, 28 November 2016

अजनबी... जाना –पहचाना सा - IV

जैसे-जैसे वक़्त बीतता जाता है रिश्ते गहरे होते जाते हैं, कुछ रिश्ते टूटते भी हैं और कई नये रिश्ते जुड़ते भी हैं..

    “ वक़्त का पैमाना भी अंदाज़-ए-जुदा होता है यहाँ
     कि अपना हर लम्हा अपनों के नाम होता है..
     होती है सुबह दोस्तों-यारों की संगत में,
     कि हर कहानी के पीछे अपना ही एक ज़ाम होता है..
     बन-बिगड़ जाते हैं रिश्ते यहाँ पल भर में,
     लेकिन दिलों में ज़ज्बातों का अम्बार होता है..
     बीत जाते हैं साल-दर-साल यूँ ही,
     लेकिन जो न बीत पाए, वो यादें होती हैं..
     घूमता फिरता है हर बंजारा यहाँ
      अपनी ही हॉस्टल की गलियों में,
    करता है वार्डन की मखनबाजी
     रात-बिरात की अन्धेरियों में,
     गूंज उठती हैं आवाजें कई यहाँ
     दिन-दोपहर रात के अंधेरों में,
     कि काफिले निकलते हैं दोस्तों की टोलियों में..
     बीत जाता है वक़्त यूँ ही हँसते- रोते
     पर जो न बीत पाती है वो अपनी याद होती है..”

चार साल में एक वक्त ऐसा भी आता है, जब सबके रास्ते अलग होने लगते हैं. सबकी किस्मत अलग अलग राहों पर ले जाती है उन अपनों को. लेकिन सिर्फ रस्ते अलग होते हैं, मन तो वहीँ कॉलेज के लाइब्रेरी में, क्लास रूम में, हॉस्टल के रूम में, कैंपस में, लव ट्री के पास, मिरिंडा के किनारे, सिबू दा के ढाबे में, दामोदरपुर के चौराहे पर, राजोग्राम, बाँकुरा और न जाने कहाँ-कहाँ रह जाता है.. अपनी यादों के साथ.
शायद इसलिए आज भी जब कभी लता मंगेशकर की ये लाइन्स कानो में जाते हैं तो मन अपनी ही यादों की दुनिया में खो जाता है ... और होठों पर ये लाइन रह जाती है...

       “हम भूल गये रे हर बात मगर तेरा प्यार नही भूले,
       क्या क्या हुआ दिल के साथ -२ मगर तेरा प्यार नही भूले
        हम भूल गये रे हर बात मगर तेरा प्यार नही भूले “


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अजनबी... जाना –पहचाना सा - III

Hey hello friends, Once again I am here with the same “Love Tree” of BUIE and memories.
चलिए फिर से एक बार चलते हैं बी.ऊ.आई.ई (BUIE) के यादों की वादियों में, एक और कप कड़क चाय की प्याली के साथ. आप भी सोचते होंगे कि इतने दिनों से जिस जगह से, जिस कैंपस से दूर हूँ, उसकी बातें क्यों याद करती हूँ , वही बीती बातों को क्यों दुहराती हूँ... इस सवाल का जवाब तो आप सबको वही दे सकता है जिसने खुद उन गलियों में अपने जीवन के लम्हे गुजारे हों.. वो कहते हैं ना :-
        “ नगमे है, शिकवे है, किस्से है, बाते है..
          बाते भूल जाती है, यादे याद आती है.. “
और ये बिलकुल सच है, कितनी भी दूरी क्यों ना हो... वहाँ की यादें कभी साथ नही छोड़ती.
तो चलो चलते हैं उन हसीं वादियों में ..
दूर दूर तक रेगिस्तान कि तरह फैली लाल बलुई मिट्टी (red sandsoil) और उस रेगिस्तान में हमारा हॉस्टल. कोई नज़र नही आएगा वहाँ सिवाय वहाँ के पंछियों के. चार-पाँच हॉस्टल की  बिल्डिंग और उनका साथ देता हुआ अपना “लव ट्री”, उसी के साथ जुड़ा हुआ एक छोटा सा तालाब “मिरिंडा पोखर“. सबका फेवरेट. पानी हो या न हो, मिरिंडा तो मिरिंडा है. उसका अपना ही नशा है, और वो नशा क्या है ये तो उनसे पूछो जो “ चंडीदास ” और “ आइंस्टीन ” में रहते हैं.
यहाँ रहने वाले लोग अलग अलग ठिकानो से आके यहाँ एक हो जाते हैं. अपने अपने घर-परिवार से दूर एक नया घर बन जाता है, एक नया परिवार मिलता है यहाँ. जो चार सालो के साथ में ही ज़िन्दगी के कई सलीके सिखा जाते हैं. ऐसा किसी एक के साथ नही होता, यहाँ आने वाले हर स्टूडेंट की कहानी ऐसी ही होती है..
जब आते हैं तो नज़रें दौड़ती-भटकती किसी को तलाशती हुई होती हैं, कोई ऐसा जो अपना हमसफ़र बनेगा आनेवाले चार सालों में जो साथ चलेगा. सबकी नज़रे एक छोर से दुसरे छोर तक सिर्फ कुछ नामों को लेकर भटकती है अपने अपने “रूम मेट” की तलाश में. उस खोज कि शुरुआत से लेकर उसके पुरे होने के बीच में कई नये रिश्ते बनते है.. “पडोसी” , ”फ्रॉम सेम प्लेस फ्रेंड्स ”, “ सेम कॉलेज औ’ स्कूल ब्रांच फ्रेंड्स”, “कोचिंग फ्रेंड्स” और न जाने कितने रिश्ते. ये रिश्ते धीरे –धीरे अपने ही रंग में रंगते चले जाते हैं और तब शुरू होता है यादों का एक कारवां .. जो तब नज़र नही आता लेकिन वहाँ से निकलने के बाद, एक दूसरे से दूर होने के बाद यादों के हर पल को अलग ही रंग देते हैं. कभी आँखों में आँसू तो कभी होठों पर मुस्कान दे जाते हैं. हॉस्टल का कैंपस और उसके बीचो-बीच अपना “मिरिंडा पोखर “ उसके ही किनारे पर गर्ल्स हॉस्टल के ठीक सामने हरा-भरा “लव ट्री”. कई यादों का बसेरा होता है यहाँ, कुछ खट्टी तो कुछ मिट्ठी और कुछ ऐसी भी जिनका स्वाद पहचानना थोडा कठिन होता है...
कई रिश्ते होते हैं यहाँ ... भाई-भाई का रिश्ता, बहन-बहन का रिश्ता, भाई-बहन, दोस्ती-यारी और कई रिश्ते तो भाभी-देवर या फिर जीजा-साली के भी बन जाते हैं ... हर रिश्ता बस हँसी-मजाक से, एक दूसरे की परवाह से और अनदेखा सा प्यार से बंधा होता है. दूर-दूर से आये अजनबी “एक रिश्ते में” बंध जाते हैं यहाँ आकर. चार साल के हर दिन की अपनी एक अलग कहानी होती है यहाँ. अगर एक बी.ऊ.आई.इ. से पास आउट बंदा या बंदी ये बोले की उसके लाइफ में जो कुछ भी हो रहा है या हुआ वो एक लम्बी कहानी है... तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नही है.. कहानियां तो हर कॉलेज में होती हैं, लेकिन यहाँ की बात ही अलग है.

Tuesday, 22 November 2016

नवम्बर की धूप

आज जब भरी दोपहरी में कुछ देर के लिए अपने घर के बाहर निकली तो ऐसा महसूस हुआ जैसे ज्येष्ठ (मई- जून) की  गर्मी से तपती जमीं और अंगारे बरसाता आसमान के बीचो-बीच मैं अकेली ही हूँ. ऐसी तपती गर्मी और हवाओं का वो अंगारों से लबालब रुख बदन को झुलसाते हुए से प्रतीत हुए. मन तो मनो हवाओं के थापेरों से पहले ही घायल होकर कहीं बेसुध हुआ पड़ा रहा. १० मिनिट के समय में ही मनो एक युग की गर्मी का एहसास हो गया हो... जैसे-तैसे अपने कदमो की रफ़्तार को तेज़ करने की कोशिश करते हुए अपने पांचो इंदियों को एकाग्र किया और इस लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने लगी कि जल्द-से-जल्द अपनी मंजिल तक पहुँच जाऊं लेकिन पैरों की रफ़्तार भी गर्मी के मार से अछूती नही रही. पैर भी थके-मांदे आगे बढ़ते रहे. सड़कों पैर अन्धाधुन दौड़ती गाड़ियों के बीच मैं भी सरपट भागती चली जा रही थी इस उम्मीद में शायद कहीं कोई पेड़  की छाया मिल जाये लेकिन दूर-दूर तक पेड़ तो क्या कोई पौधा भी नज़र ना आया. मन ही मन उदास- हतास हो कर यह सोच रही थी अगर २०१६ में स्थिति इतनी भयानक है तो अगले १५-२० बरसों में स्थिति कितनी भयावह होगी. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि धर्मवीर भारती जी की  लिखी हुई ये कवितानवम्बर की धूप आज ही एक ख्वाब, एक कल्पना मालूम पड़ रही है तो आगे की  आने वाली पीढियां तो इसे स्वप्न मात्र भी शायद ही मानेंगी..

यही सोच कर उनकी कविता  की पंक्तियों को याद करने लगी और कहीं- कहीं शायद उनके वर्णन में और आज की सचाई में तुलना करने लगी.. एक गहन और अमान्य-सा फर्क समझ आने लगा.. उनकी कविता की एक- एक लाइन एक अलग दुनिया की कल्पना सी लग रही थी. उस खुबसूरत सी दुनिया और हमारा बेतरतीब सा संसार एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं, इसमें कोई संदेह नही कि उनकी दुनिया बेहद खुबसूरत और चंचल रही होगी बिलकुल वैसी ही जैसे किसी नई नवेली दुल्हन के हनथो में खनकती चूड़ियाँ, नवम्बर की धूप भी उतनी ही शोख रही होंगी जितनी दुल्हन के माथे से भीगी केशों कि लटकती हुई लटें या फिर शायद उतनी ही नाज़ुक रहती होंगी जितनी कि एक कमसिन दुल्हन. इन्ही ख्यालों में उलझी-सुलझी मैं अपनी मंजिल की ओर बढ़ती रही लेकिन अब पैरों में एक अलग सी स्फूर्ति थी और माथे पर सिकन की जगह उस तिल्तिलाती गर्मी में भी चमक. आँखे झुलसी जातीं थी धूप  की  आग से लेकिन उनमे जो पानी उभर आया था वो सुखा नही .. और मन उलासित हो नवम्बर की चिलचिलाती धूप  से दूरभारती जीके नवम्बर की धूप  में विचरण करने में लीन हो गया ... आप में से बहुत से लोग शायद भारती जी की कविता से अनजान होंगे इसलिए उनकी कविता को यहाँ अंकित कर रही हूँ ....

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की !

आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी 
इस मन की उँगली पर 
कस जाये और फिर कसी ही रहे 
नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी 
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे 

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख 
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की 
उस आँगन में भी उतरी होगी 
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी 
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट 
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में 

आज इस वेला में 
दर्द में मुझको 
और दोपहर ने तुमको 
तनिक और भी पका दिया 
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा 
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला 
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई 
रेल के किनारे की पगडण्डी 
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़ 
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी...
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