Wednesday, 19 December 2018

जब से मिली हो तुम


















इश्क,उल्फ़त,दिल्लगी
सब भूल गया हूँ मैं,
जब से मिली हो तुम
तुम में ही डूब गया हूँ मैं ||

अब मुझे कुछ और नज़र आता ही नहीं,
मंजर कोई भी हो,
दिल को भाता ही नही,
तुम्हारे प्यार में पड़ कर,
मुहब्बत सीख गया हूँ मैं ||

तुम पास हो मेरे तो
फिर से जी उठा हूँ मैं,
तुम्हारी इक मुस्कुराहट पर,
अपनी खुशियाँ लूटा बैठा हूँ मैं,
जब से मिली हो तुम,
तुम्हे ही दुनिया बना बैठा हूँ मैं ||


 --------*********-----------*********-------






Tuesday, 18 December 2018

खो जाता हूँ मैं



खो जाता हूँ मैं खुद में ही कहीं
जब भी देखता हूँ चेहरा तुम्हारा,
सिहर उठता है मेरा रोम-रोम
जब सुनाई देती हैं 
मुझे धड़कने तुम्हारी ||

जब भी देखती हो तुम मुझे,
अपनी पलकों को झपक कर
एक पल को दुनिया भूल जाता हूँ मैं ||

नन्ही-नन्ही उँगलियों से,
जब पकड़ लेती हो 
मेरे मजबूत हाथों को
ऐसा लगता है कोई पेड़
अपनी ही लटों से लिपट-सा गया है ||

तुम तो अभी बिलकुल मासूम हो
तुम्हे तो कुछ भी पता नहीं
फिर भी जब तुम यूँ ही 
कभी-कभी मुस्कुराती हो,
तो मैं सोचता हूँ
तुम मुझे जीवन का
नया पाठ पढ़ाती हो ||

जब से थामा है मैंने तुम्हें
अपनी हथेलियों में,
लगता है मेरी छोटी-सी मुट्ठी में,
मेरी दुनियाँ कैद है ||  

------*********-------********----------

Monday, 17 December 2018

कह दो न तुम्ही





कह दो न तुम्ही,
जब देखा था पहली दफा तुमने 
कुछ तो बात रही होगी ||

बहती हवाओं में उड़ता,
वो मखमली दुप्पटा मेरा,
बारिश की बूंदों से
भीगी -भीगी मेरी जुल्फे,
नम हथेलिओं में भर कर,
अपनी उगलियों की सुरसुराहट से
जब संवारा था तुमने
कुछ तो बात रही होगी ||

उलझी हुई जुल्फों को
सुलझाते-सुलझाते जब
उलझने लगी थी तुम्हारी निगाहें,
देखा था मैंने
कुछ जाम ख्वाबों के छलक रहे थे,
वो पतली-सी हँसी दबी-दबी सी,
बरबस ही आ गयी थी होठों पर तुम्हारे,
कुछ तो बात रही होगी ||

वो बाँकपन, वो अठखेलियाँ
रंगने लगी थी आफ़ताबी रंगों में,
अपने दरम्याँ जो थी शोखियाँ
लिपटने लगी थी गुलाबी चादर में
कह दो ना एक बार ही सही
कुछ तो बात रही होगी ||

जब देखा था पहली दफा तुमने
कुछ तो बात रही होगी ||

-------*******--------*******-------



Friday, 23 November 2018

अगर तुम साथ हो


                  चित्र:- साभार गूगल से

आज रिया सुबह से ही बहुत खुश थी. वैसे तो वो हमेशा ही खुशगवार रहती थी लेकिन उसकी ख़ुशी में ये चुहलबाज़ियाँ आज बड़े दिनों बाद नज़र आई थी.

करन: “क्या बात है ! आज तो बड़ी ही चहक रही हो ?”

रिया: “हाँ करन, ख़ुशी की तो बात है. आज कितने सालों बाद हम अपने पुराने दोस्तों से मिलने वाले हैं . मुझे तो रात भर नींद ही नही आई.”

करन: “ ओहो! ये बात”

करन अपना टोवेल लेकर बाथरूम में नहाने जा चूका था और रिया किचेन में उसके लिए नास्ता तैयार करने में मशगुल हो गयी.  शाम को उनके घर उनके पुराने फ्रेंड्स आने वाले थे, पुरे ६ साल बाद मिलने का प्लान बन पाया था. लेकिन करन को ऑफिस में वर्क लोड ज्यादा होने के कारण छुटियाँ नही मिल पा रही थीं और यही कारण था कि सब दोस्तों ने करन और रिया के घर पर ही वीकेंड स्पेंड करने का प्लान बनाया था. वीकेंड के बाद उनका ३-४ दिन साथ में घुमने का भी प्लान था.

दोपहर के २ बजते ही करन अपनी ऑफिस की कुर्सी से उठने की कोशिश कर रहा था लेकिन काम ज्यादा होने की वजह से उसे ऑफिस से निकलते-निकलते ३:३० हो गये थे. जल्दी जल्दी अपने घर की तरफ भागा और जब घर पहुंचा तो घर की डोरबेल बजने से पहले ही रिया ने दरवाजा खोलते हुए सिकायत के लहजे में कहा: क्या करन ! आज तो जल्दी आ जाते.

करन फ्रेश होने के बाद जब हॉल में आया तो उसने नोटिस किया रिया सुबह के कपड़ों में अब तक चक्करर्घिनी की तरह पुरे घर को सँभालने में लगी है. किचेन से खाने की खुशबू आ रही थी. घर बिलकुल साफ़-सुथरा था, वास में उसने गार्डन से तोड़कर मोगरे लगाये थे, करन और उसकी शादी की फोटो जो लगी थी उसे भी साफ़ कर बड़े ही संजीदे से टेबल पर रखा था. उसके बाल अभी भी क्लचर से बस थोड़े से अटके थे बाकी काम करते करते उसके चेहरे पर लटक गये थे. चेहरा सुख कर छोटा-सा हो गया था और आँखों से थकान टपक रही थी. फिर भी रिया बिना कुछ कहे अपने काम में लगी थी. उसके होठों की मुस्कान अब तक बिलकुल सुबह की पहली किरण की तरह मासूम लग रही थी.

शाम के ६ बजने को थे और रिया अब फ्रेश हो कर तैयार हो गयी थी. उनके फ्रेंड्स भी आ गये. सबके रंग –ढंग बदले से नज़र आ रहे थे लेकिन उनकी दोस्ती अब भी वैसी ही थी. बातों –बातों में पता ही नही चला उन्हें कि कब कॉलेज की तरह ही वो लोग २ टोलियों में बट गये थे, एक तरफ लड़के और दूसरी तरफ लड़कियां. रिया, सोनिया, साक्षी एक टीम में तो करन, राहुल, अर्नब ,सुरेश दुसरी टीम में.बातों का सिलसिला कॉलेज के कारनामों से शुरु हुआ था और अब रात के २ बजे भी उनकी बातों की सुई उन्ही यादों में उलझी थी.

रिया और करन अपने mca के फाइनल इयर में ही नजदीक आ गये थे. उनकी दोस्ती कब कैसे प्यार में बदल गयी थी पता ही नही चला था उन्हें. दोस्तों के साथ फिर से वो आज अपने उन्ही यादों को , लम्हों को फिर से जी रहे थे, वो सारी बातें, प्रोमिसेस सब कुछ याद आ रहा था उन्हें.

सुबह के ४:३० बजे जब उनकी महफ़िल टूटी तो सबने नींद पूरी करने का फैसला किया और अपनी अपनी जगह पकड़ कर सोने गये. लेकिन करन की आँखों से नींद उड़ गयी थी. वो तो अब भी उन्ही यादों में अटका था. उसे सबकुछ याद आ रहा था.

कैसे रिया टॉप १० में गिनी जाती थी तो करन टॉप ३० में भी अपनी जगह नही बना पाया था. धीरे-धीरे जब उन दिनों दोनों की नजदीकियां बढ़ी तो रिया की जॉब लग चुकी थी. हाई प्रोफाइल कंपनी, अच्छी सैलरी. दूसरी तरफ करन स्ट्रगल करता रहा. कॉलेज छोड़ने के बाद भी जब करन को कहीं अच्छी जॉब नही मिल पाई तो रिया ने ही उसे अपने फ्रेंड के थ्रू रेफर कराया था और करन की जॉब लगी थी. २ साल बाद करन और रिया ने अपने घरवालों की मर्जी से शादी की थी.

शादी के शुरुआत में तो सब नार्मल था लेकिन टाइम के साथ करन को ऐसा लगने लगा था कि रिया उससे सुपीरियर है और ये बातें उनके रिश्ते में आने लग गयी थी. जब रिया को इस बारे में पता चला था तो वो shocked थी लेकिन कुछ कहा नही था उसने. कुछ महीनो बाद ही रिया ने करन से कहा था : रिया अपने जॉब से थोड़े टाइम के लिए ब्रेक लेना चाहती है. करन ने भी हामी भरी थी और उसके बाद ही रिया ने जॉब क्विट किया था.

आज इस बात को ३ साल होने को थे लेकिन रिया ने वापस कभी भी जॉब ज्वाइन करने की कोई सिरकत नही की थी. करन भी अपने काम में उलझ गया था और इस और उसने कभी ध्यान ही नही दिया था. इन ३ सालों में कितना कुछ बदल गया था. रिया जो हमेशा गाती-गुनगुनाती रहती थी अब खामोश-सी रहती थी. सबको अपनी बातों से हँसाने वाली रिया खुद ही हँसना भूल गयी थी. आज जब इतने दिनों बाद करन ने फिर से रिया को मुस्कुराते देखा तो जैसे फिर से अपना दिल हार गया था.

इन्ही ख्यालों में डूबा करन नींद के आगोश में जा चूका था. जब उसकी आँख खुली तो हॉल से ठहाकों की आवाजें आ रही थीं. बाहर आया तो उसकी नज़रे ठहर गयी थी और आंखे फटी की फटी रह गयी थी. सामने ब्लू जीन्स और वाइट टॉप में रिया खड़ी थी, उसने अपने बालों को सेमी-जुड़ा बनाया था. आँखों में पतली काजल की लकीरें और होठों पर ६ साल पहले की मुस्कान. रिया की खूबसूरती देख करन उसमे खोता चला जा रहा था.

रिया के होठो पर मुस्कान और चेहरे पर ख़ुशी देख करन उस रिया को अपने साथ रहने वाली रिया से compare कर रहा था. कहाँ ये तब्बसुम और कहाँ डेली की रिया रुखी-मुरझाई सी. जैसे-जैसे वो रिया के इस रूप को याद करता उसे खुद से नफरत होती जा रही थी क्युकी उसे ऐसा लग रहा था जैसे इस रिया को खोने का कारण वह खुद है और ये सच भी तो कितना था.

आज ३ साल बाद अचानक करन का मन सब कुछ छोड़-छाड़ कर रिया को अपनी बाँहों में समेट फिर से जीने का कर रहा था. जहाँ कोई फ़िक्र, कोई ग्लानी, कोई सिकवा, कोई सिकायत न हो. आज वह इस मौके को खोना नही चाहता था लेकिन दोस्तों के बीच रिया से अपने प्यार का इज़हार करने में झिझक रहा था. ये झिझक शायद उसकी ग्लानी थी. लेकिन रिया ने करन का दिल भाँप लिया था और आज फिर से अपने बेबाकपन से उसने सबके सामने करन से अपने प्यार का इज़हार भी कर दिया था और उसे माफ़ भी.

रिया ने बड़े ही प्यार से करन का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था:- “आइ ऍम कम्पलीट, अगर तुम साथ हो.”

आज दोस्तों के इस रीयूनियन ने इन दो दिलों को फिर से एक कर दिया था, और शायद इस बार उम्रभर के लिए.
-----------*-----------******------------*--------------    


रिश्तेदारी ... तेरी मेरी



                                          चित्र: - साभार गूगल 

घर में साफ़-सफाई और पेंटिंग का काम लगा था और दिवाली के साथ-साथ निशु के पहले बच्चे की डिलीवरी भी नजदीक आ गयी थी.

घर में कामों की भरमार थी और उन्हें करनेवाला कोई नहीं. डेट नजदीक होने के कारण निशु के लिए भरी-भरकम सामान इधर-उधर करना संभव नही था और उसके पति निलेश के पास टाइम नही था.

वैसे तो निलेश बड़े ही शांत स्वभाव का था लेकिन उसके विचार बड़े ही खुले और अपनत्व से परिपूर्ण थे. उसने कभी निशु को अकेलेपन का एहसास नही होने दिया था, बाहर के काम, अपने ऑफिस के काम के साथ ही घर के कामों में भी उसका हाथ बटाता.

जब से उसे पता चला था कि उसके घर भी नन्ही-सी किलकारी गूंजने वाली है, वो ख़ुशी से फुला न समा पा रहा था. अपने परिवार से, अपने रिश्तेदारों से, दोस्तों से, सबसे वह अपनी इस ख़ुशी को बाटता.

जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था उसकी ख़ुशी दोगुनी होती जा रही थी और परेशानी भी. निशु की देख-भाल को लेकर बहुत ही सचेत होता जा रहा था वो. इतने बड़े शहर में अकेले सबकुछ मैनेज करना थोडा कठिन लग रहा था. अब उसे हेल्पिंग हैंड्स की जरुरत महसूस हो रही थी. उसने अपने घरवालो से इस विषय में बात की लेकिन सबके पास कोई न कोई अपना कारण था, किसी ने भी आकर उनके पास रहना अपने लिए कठिन कहा. किसी ने भी उनके पास आने से इंकार नही किया था लेकिन टालम-टाल उनकी बातों में अवश्य ही रहता.

निलेश सबसे बड़े ही सहज भाव से कहता कोई बात नही, वो सब काम भी तो जरुरी है. लेकिन, मन ही मन उसे चिंताए घेर लेती. दूसरी तरफ निशु, सब कुछ देख रही थी, समझ रही थी लेकिन चाह कर भी कुछ बोल नही पाती. निशु अपने मायके से किसी को बुलाने की सोचती फिर ये सोच कर रुक जाती कि कहीं ससुरालवाले बुरा न मान जाएँ. संकोच के कारण चाहते हुए भी वो अपने घर से मदद नही ले पा रही थी.

जब कभी निलेश से इस बारे में बात करना चाहती, निलेश की अपने घर से किसी के आने की उम्मीद देख चुप हो जाती. उसे डर था कि कहीं निलेश उसकी बातों का कोई दूसरा अर्थ न निकाल ले.

निलेश और निशु की शादी को लगभग २ साल होने को आये थे, लेकिन बड़े शहर में रहने के कारण निशु का अपने ससुराल जाना कम ही रहा. इस कारण ससुरालवालों से ठीक से मिलना-जुलना भी नही हो पाया था. न तो उन्हें समझने का समय मिला था और नही उनकी सोच को.

हर दुसरे-तीसरे दिन जब निलेश के घरवालों को फ़ोन करने का सिलसिला बंद होता तो दोनों पति-पत्नी एक दुसरे के आँखों से बातों को समझने का पर्यत्न करते , होठ दोनों के खामोश ही रहते.

वो कहते हैं न, “टाइम flies”. अब सामने दिवाली भी थी और घर में काम भी लगा था. ऊपर से कभी भी लेबर पैन होने की शंका मन में लगी रहती. और देखते ही देखते वो रात भी आ गयी जिसकी सुबह उन दोनों के जीवन में खुशियों का पिटारा ले कर आई थी. अपने हाथों में अपनी परछाई को पाकर निलेश चहक उठा. फिर से सिलसिला शुरु हुआ घरवालों को फ़ोन पर खुशख़बरी देने का.

निलेश ने बड़ी मिन्नतों के साथ कहा था सब से कि वो आये एक बार उसकी “नन्ही परी” को देखने, उसके मासूम से चेहरे पर अपना हाथ फेर उसे आशीर्वाद देने.

बधाइयों का ताता लगा रहता फ़ोन पर लेकिन घर का दरवाज़ा रिश्तेदारों से सुना ही रहा. बच्चे के आने के बाद निशु के परिवार वाले उनसे मिलने आये भी तो उनसे मिलकर कुछ ही दिनों में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने अपने घर को लौट गये. रुकने के लिए न तो निलेश की तरफ से कोई आग्रह हुआ और न ही निशु उन्हें कह पाई. संकोच मन में अब भी था.

बच्चे के आने के साथ ही जिम्मेदारियों का पिटारा बढ़ गया था. निलेश और निशु अब भी एक दुसरे की पूरी मदद करते. लेकिन जो इंतज़ार उन्हें पिछले ३ महीनों से था वही इंतज़ार उनकी ज़िन्दगी में वापस आ गया था, रिश्तेदार तो थे लेकिन उनमे कोई उनका हेल्पिंग हैण्ड बनने को तैयार नही था शायद.

निशु जब भी बच्चे को सँभालने में अपने को अक्षम पाती उसे अपनी माँ याद आती लेकिन चाहते हुए भी न तो वो उन्हें अपने पास रोक पाई थी और न ही उसकी माँ अपनी नवजात नावाशी के पास रुक पाई थी.

निलेश और निशु जब भी अपने बच्चे को देखते उनकी आँखे चमक उठती , उनकी खुशियाँ छलक पड़ती . उन्हें अपना बचपन नज़र आ रहा था और शायद नये सपने आँखों में उतर चुके थे, अब तो बस उनमे रंगों का भरना बाकी था जैसे.

निलेश की आँखों में अब इंतज़ार के साथ साथ निराशा की एक धुंधली सी परछाई नज़र आने लगी थी लेकिन उसके मन में शायद उम्मीद की एक किरण अब भी थी.
-------------*---------*------------*--------------*---------------*--------------*--------------------



Wednesday, 19 September 2018

दराज़ो का राज़ -- ४


पर ऐसा नही . शादी की पांचवी सालगिरह थी, वह दिन सारे अर्थ खो चूकने पर भी दिन तो बना ही हुआ था. यों इस दिन न चाहने पर भी वह अपने को बहुत दुर्बल महसूस करती थी. उसकी यातना कई गुना बढ़ जाती थी. पर इस बार उसने वैसा कुछ भी अनुभव नही किया और बड़े आग्रह से बिपिन से कहा था कि वह उससे संध्या के पांच बजे ला-बोहीम में मिले.

ला-बोहीम का अँधेरा कोना. आसपास की मेजें खाली थीं और अपनी मेज़ पर लटकती बत्ती को उसने बुझा दिया था. अँधेरा होने के साथ ही मंजरी के मन में एक क्षण को यह बात आई थी कि आज के इस अँधेरे से ही वे चाहें तो अपनी ज़िन्दगी में कितनी रोशनी ला सकते हैं. उस समय भीतर-ही-भीतर कुछ कसका भी था, पर दूसरे ही क्षण उसने अपने को सहज बना लिया, यह सोचकर कि यह निरी भावुकता है और भावुकता को लेकर आदमी केवल कष्ट प् सकता है, जी नही सकता. मंजरी जीना चाहती थी अपने लिए और बच्चो के लिए.

और तीन घंटों के बाद जब वहां से निकली तो उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि कैसे वह इतने सहज और तटस्थ ढंग से सारी बात कर सकी, मानों ये सारे निर्णय उसने अपने लिए नही, किसी और के लिए किये हों. वह खुद जानती है कि औरतें अपने को कभी पूरी तरह तटस्थ नही कर सकती, खासकर ऐसे सांघातिक क्षणों में तो वे बात भी नही कर सकतीं, केवल रो सकती है, बार-बार रो सकती है.

उससे भी आश्चर्य उसे तब हुआ था, जब अपने निर्णय को व्यावहारिक रूप देने के लिए वह अपना सारा सामान बटोरकर , दो महीने की छुट्टी ले दिल्ली से विदा हुयी थी. बिपिन ने बच्चे को बहुत प्यार किया था और एक बार उसे भी. फिर बहुत ठण्डे स्वर में कहा था ---“ मैं दिल्ली छोड़ दूँगा . इस सबके बाद मुझसे यहाँ रहा भी नही जायेगा. तुम शायद यही लौटकर आना पसंद करोगी . इस घर को अपने नाम ही रहने दो.”

मंजरी तबतक यह तय नही कर पायी थी कि उसे कहाँ रहना है, क्या करना है. केवल एक विश्वास था कि जिस सहज ढंग से वह साड़ी स्थिति में उबरी है, उसी तरह नई ज़िन्दगी का रास्ता भी खोजेगी. फिर उसने घर अपने ही नाम रहने दिया. मानसिक तनाव के ऐसे विकट क्षणों में भी उसकी व्यापारिक बुद्धि कुंठित नही हुयी, तभी उसे लगा कि बिपिन से ब्याह करके आनेवाली मंजरी पूरी तरह मर चुकी है. यह तो उसकी लाश से पैदा हुयी दूसरी मंजरी है.

एन समय पर बहुत बड़ा नाटक होने की सम्भावना थी. बच्चे को लेकर कुछ हो सकता था, पर कुछ नही हुआ. उधर से बड़े सहज ढंग से कुछ औपचारिक वाक्यों का आदान-प्रदान हो रहा था और भीतर से मन मरे हुए थे. ट्रेन प्लेटफार्म और प्लेटफार्म पर खड़े विपिन को पीछे छोड़ आगे बढ़ गयी थी और सब कुछ मंजरी ने सूखी आँखों से देखा ही था.

जब सब पीछे छुट गया तो भीतर से एक गहरा निःश्वास निकला था, शायद मुक्ति का. अपने ही शारीर का फोड़ा जब सूख जाता है तो मरी हुयी खाल को शारीर से खींचकर अलग करते समय जैसी भावना आती है, कुछ-कुछ वैसी ही.

दो महीने बाद वह उसी घर लौटी थी. सबने उसे देखकर पूछा था कि वह बीमार रहकर आई है, वह बहुत दुबली हो गयी है, उसका चेहरा सूखा और कला हो गया है. उसे स्वयं महसूस होता था, पर उन सबसे कुछ भी अंतर नही पड़ता था. उसने वहां आकर सबसे पहले चश्मा लिया; क्योंकि उसकी आँखें एकाएक ही बहुत कमजोर हो गयी थी.

घर ज्यो-का-त्यों था, केवल वे सब चींजे वहां से हटा दी गयी थीं, जिनके साथ बिपिन की स्मृति लिपटी थी, वह मेज़ भी ! मेजवाला कोना खली रहने पर भी उसके मन में भय और वितृष्णा की मिली-जुली भावना पैदा किया करता था. बिपिन से मुक्त होकर भी वह जैसे उससे से पुरी तरह मुक्त नही हो पा रही थी.

घर के बचे हुए सामान पर धुल की परतें जमी हुयी थीं. एक दिन तो वह उस घर में कुछ नही कर पाई; पर दुसरे दिन ही वह सफाई में जुट गयी. बिपिन का कोई भी चिन्ह वहां नही था, सिवाय एक-दो भरे हुए एशट्रे के . घर साफ़ हो गया था, फिर भी उसे बराबर लगता रहा था कि एक बड़ी ही परिचित गंध है, जो उसमें बराबर बनी हुयी है. वह किधर भी जाये, कहीं भी रहे उस गंध के अहसास से मुक्त नही हो पाती थी.

तब उसने घर के सारे खिड़की दरवाजे खुले रखने शुरू कर दिए थे – बहार की साफ़ हवा, धुप आने के लिए. धीरे-धीरे खुले दरवाजों से हवा और धुप के साथ-साथ अनेक तरह की गंध, अनेक चेहरे और अनेक नज़रें भी झाँकने लगी थी. कुछ तरस लिए और कुछ आत्मीयता लिए. उसके साहस की प्रशंसा भी की जाती थी और कभी-कभी दबी जवान से यह समाचार भी दिया जाता था कि बिपिन को किसी बच्ची और महिला के साथ देखा. बिपिन के लिए स्वर में भर्त्सना रहती थी, पर उसे न अपनी प्रशंसा छूती थी, न बिपिन की भर्त्सना.



Sunday, 5 August 2018

H@PPY FRIENDSHIP D@Y..





धुल में लोटता बचपन,
झूलों से लटकता बचपन,
कभी हाथ पकड़ एक-दूजे का,
गोल-गोल घूमता बचपन.
क्षण में नाराज़, क्षण में मस्त
जिसके आगे सारी दुनिया पस्त
कागज की वो कश्तियाँ
वो दोस्तों की टोलियाँ
बारिश में भींगता बचपन,

कभी पखियों-सी किलोलें
कभी बेसबब किलकारियां
कभी तितलियों सा-उड़ता,
कभी गोरैया-सा फुदकता बचपन

क्लास –रूम में हल्ला-हंगामा
तो कभी प्लेग्राउंड में शोर मचाना
प्रेयर से पहले की वो कब्बडी,
लंच के बाद की अन्ताक्षरी,
जब जाना न था
दोस्ती का मतलब,
तब से है अपनी यारी...

बीत-गये साल-दर-साल
फिर भी
साथ चलता है जैसे अपना बचपन..
वही धुल में लोटता बचपन,
झूलों से लटकता बचपन.......

H@PPY FRIENDSHIP D@Y..









Monday, 23 July 2018

दराजों का राज़ - ३

उसकी अलमारी बहुत बड़ी थी और तीन दराजों (कम्पार्टमेंट) में बाटी हुयी थी . बायीं ओर वाली दराज पर्सनल थी , बीच वाली पारिवारिक ( फॅमिली) और दायीं ओर वाली सामाजिक (सोशल) समझ लीजिये. यह डिवीज़न मंजरी ने ही किया था, उन दिनों जबकि उन दोनो के बीच भी एक डिवीज़न-लाइन (divider) खिंच गया था. 



क्यूंकि दराज़ में केवल बिपिन का अतीत ही नही था, वर्तमान भी था और उसमे भविष्य की योजनायें थीं. वह जैसे-जैसे बिपिन के निजी जीवन के नजदीक होती जा रही थी, अनजाने और अनचाहे ही बिपिन से दूर होती जा रही थी. धीरे-धीरे मनों की ये दूरी शरीर में फैलती चली गयी थी. और वे अनायास ही एक-दूसरे के लिए निहायत अपरिचित-से हो गये. फिर उनके हिसाब अलग रहने लाहे, कॉन्टेक्ट्स और रिलेशन भी अलग हुए.

दोनों के पास अपने-अपने तर्क थे और दोनों ही इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि ये तर्क उन्हें कहीं नही ले जायेंगे. फिर भी हर तीसरे दिन घंटो बहस होती थी और उसकी समाप्ति मंजरी के आँसू ही करते थे. अब स्नेह का स्थान संदेह ने ले लिया था और तर्कों ने सद्भावना के रेशे-रेशे उधेड दिए थे.

अब मंजरी अपने ही घर में बहुत अकेली हो उठी थी और सबकुछ बड़ा वीरान लगने लगा था. हर काम बोझ लगने लगा था. खली समय और भी बोझिल. वह घंटो किताब खोले बैठी रहती थी, पर पंक्तियाँ केवल आँखों के नीचे से गुजरती थीं, मन उनसे अछूता ही रहता था- कापियां देख रही हो या प्रूफ ! बिपिन से सम्बन्ध क्या गड़बड़ाया था, उसकी समस्त इन्द्रियों के आपसी सम्बन्ध गड़बड़ा गये थे.

वह घर के सारे खिड़की-दरवाजे खुली रखने लगी थी, फिर भी लगता रहता था कि साफ़ हवा के आभाव में घर की हवा धीरे-धीरे जहरीली होती जा रही है, और कोई है, जो उसके देखते-देखते मरता जा रहा है. न वह उसे बचा सकती है और न ही निर्दयितापूर्वक मार सकती है. यों भीतर-ही-भीतर वह तरह-तरह के संकल्प करती थी, पर उसने उन्हें कभी विचारों से आगे नही बढ़ने दिया; क्योंकि घर में बहुत जल्दी ही एक तीसरा प्राणी आनेवाला था. उसने उसके और अपने दुर्भाग्य को साथ-साथ ही कोसा, पर उसके बावजूद मन में कहीं एक हल्की-सी आशा झाँकने लगी थी, शायद यह अनागत ही उनके बीच में कहीं सेतु बन जाये.

पल भर के भीतर ही उसने अच्छी तरह जान लिया कि इस युग में आशा करना ही मूर्खता है; क्यूँकी आज ज़िन्दगी का हर पहल कर स्थिति और हर सम्बन्ध एक समाधानहीन समस्या होकर ही आता है, जिसे सुलझाया नही जा सकता, केवल भोग जा सकता है. जिसमे आदमी निरंतर बिखरता और टूटता है, वह भी दो (२ ) साल तक बिखरी और टूटी थी. बिपिन मन में कहीं हल्का-सा आश्वस्त महसूस करने लगा था कि मंजरी ने शायद उन सब को स्वीकार कर लिया है, कि शायद अब वह कटेगी नही.

                                                                                                                    क्रमशः

दराजों का राज़ -२


उसकी अलमारी बहुत बड़ी थी और तीन दराजों (कम्पार्टमेंट) में बाटी हुयी थी . बायीं ओर वाली दराज पर्सनल थी , बीच वाली पारिवारिक ( फॅमिली) और दायीं ओर वाली सामाजिक (सोशल) समझ लीजिये. यह डिवीज़न मंजरी ने ही किया था, उन दिनों जबकि उन दोनो के बीच भी एक डिवीज़न-लाइन (divider) खिंच गया था.



वह सीधे अलमारी के पास पहुँची. दराज़ों में पड़ी पुस्तकें, फाइलें,काग़ज-पत्तर सब उसने पलटे, पर वे कागज नही थे. उसे खुद आश्चर्य हो रहा था, एक झलक-भर में उसने कैसे उन कागजों को ऐसी गहरी पहचान कर ली. उसने झटके से पहली दराज खोली. उसमे एक-दो इनविटेशन कार्ड थे, ऑफर-लैटर, अपोइन्त्मेन्त लैटर, डायरी, न्यूज़पपेर कट्टिंग, इलेक्ट्रिसिटी बिल थी. उसने तीसरी दराज खोलीं तो वह न खुली. वह लॉक थी.

दराज़ लॉक होना कोई अनहोनी बात नही थी,फिर भी वह भीतर तक काँप उठी. उसने सारा घर छान मारा, पर उसे चाभियाँ नही मिली और तब सचमुच ही उसका सर बुरी तरह दर्द करने लगा और वह मुंह पर साड़ी का पल्ला डालकर सारे दिन लेटी रही.

उस रात जब वह सोयी तो भीतर-ही-भीतर उसके कुछ घुमड़ता रहा था. रुलाई का वेग जैसे फूट पड़ना चाहता था, फिर भी उसने सोच लिया था कि वह जबतक सारी बात का पता नही लगा लेगी तबतक एक शब्द भी नही कहेगी. रोज की तरह ही बिपिन उसके करीब था पर न जाने क्यूँ, उसने भीतर-ही-भीतर महसूस किया कि उसके साथ सोनेवाला,उसे प्यार करने वाला बिपिन सम्पूर्ण नही है, केवल एक टुकड़ा है. सम्पूर्ण बिपिन उसे फूल सा हल्का लगता था लेकिन ये टुकड़ा बिपिन बोझ लग रहा था. बार-बार उसका मन करता कि वह उसी से साफ़-साफ़ पूछ ले, झगड़ ले, पर दराज़ का लॉक जैसे उसके होठों पर आकर लग गया था. वह सारी रात कसमसाती रही, पर बोला उससे कुछ भी नही गया था.

औरत की नज़र यों ही बड़ी पैनी होती है, फिर भी उसपर यदि संदेह की सान चढ़ जाये तो आकाश-पटल चीरने में भी देर नही लगती. दूसरे दिन भी बंद दराज़ उसके सामने खुली पड़ी थी, जो बिपिन की निहायत निजी और व्यक्तिगत थी. कुछ डायरीयां, एक औरत और बच्ची की तस्वीरें, लेटर्स. घृणा,क्रोध और दुःख की मिली-जुली भावनाओं का तूफान उसके मन में उठ रहा था. सर थामकर वह घंटों वहीं बैठी थी. फूट-फूट कर रोती रही. उसे बराबर लग रहा था कि जिसे धरती समझकर उसने पैर रखा था, वहां शून्य था, कि जैसे वह एकाएक बेसहारा हो गयी है. उसे अपने घर की छत और दीवारें हिलती नज़र आने लगी थीं.

                                                                                       क्रमशः ( To be continue...)